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* एकान्तप्रियता : . ____श्री सोगानीजीको एकान्तवास अति रुचिकर था। वे जहाँ तक सम्भव होता वहाँ तक किन्हीसे मिलना-जुलना व परिचयमें आना पसन्द नही करते थे। वे जहाँ हो वहाँ एकान्त खोजते रहते । प्रत्यः उन्हे अपने कमरेमे बन्द रहना ही अभीष्ट था। भीड़ व कोलाहलभरे वातावरणमे उनका दम घुटने-सा लगता था।
उनके परिवारके कलकत्ता आ जानेके पहले जब भी ३-४ दिनोकी छुट्टियोमें बाजार आदि बन्द रहनेकी वजहसे बाहर जानेकी आवश्यकता नही समझते तो वे ढाबेसे भोजनकी थाली अपने कमरे में ही मॅगा लेते और एक बारमे जो भी खाना थालीमे आता उसे ही खा कर, थाली कमरेके दरवाजेके बाहर सरका देते । यो ऐसे प्रसंगों पर वे अपने निवासस्थानसे तीन-तीन चार-चार दिनों तक बाहर ही नहीं निकलते ।
वे लम्बी अवधि तक कलकत्ता रहे फिर भी ख़ास परिचित मार्गोके अलावा दूसरे मार्गोसे अपरिचित ही रहे ।
जब सन् १९५३ के श्री बाहुबली-महा मस्तकाभिषेकसमारोहके समय एकान्तवासकी यह समस्या जटिल थी तो वे देर रात गये अकेले ही पहाड़के ऊपर चढ़ जाते और वही पूरी रात अपने स्वरूपके ध्यान-घोलनमे गुजार देते, तथा फिर प्रातः ही पहाड़से उतरकर कमरे पर आते ।
एकान्तवासके प्रति रुझानके परिणाम स्वरूप बाह्य जगत् उनके लिए अपनी उपस्थिति खोता जाता था।
तत्त्वचर्चाके दौरान एक बार उन्होंने बतलाया कि "मुझे तो एकान्तके लिए समय नहीं मिले तो चैन ही नहीं पड़ता।"..."आख़िर तो एकान्त (अकेला) ही सदा रहना है। तो शुरूसे ही एकान्तका अभ्यास दो-चार-पाँच घण्टा चाहिए।"