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[१४] भी, गृहस्थ आदि व्यावसायिक जंजालोका ऐसा उदय है कि मन नहीं लगे वहाँ लगाना पड़ रहा है, बोलना नहीं चाहते उनसे बोलना पड़ता है, ऐसी योग्यता है।"
- ( पत्रांक : २६; कलकत्ता/१६-१२-६१) * सत्संग-भावना:
श्री सोगानीजीको अपने श्रीगुरुके चरणोंमे निवासकी भावनाका प्रबल आवेग रह रह कर उद्वेलित करता रहता था; तथापि पूर्व प्रारब्धयोगके बिना उन्हे सांसारिक जंजालोंसे विमुक्त हो सकनेका योग नही बनता था। यद्यपि वे सर्व प्रथम सोनगढ़ आये थे तब ही उनकी तीव्र भावना थी कि "कोई मकानका प्रबन्ध कर निरन्तर गुरुदेवके चरणोमे लाभ उटाऊँ" - (देखें : पत्रांक : १९) । परन्तु वैसा योग तो नही बन पाया; बल्कि कभी-कभी तो लम्बे अन्तरालके पश्चात् ही श्रीगुरुके दर्शनोका योग बनता था ।
श्री सोगानीजी सर्व प्रथम सन १९४६मे सोनगढ़ पधारे थे; तत्पश्चात् उनका सोनगढ़ आनेका . योग क्रमशः सन् १९४८, १९५३, १९५९,१९६०, १९६१, १९६२, १९६३ मे ही बन पाया था और वह भी मात्र थोड़े-थोड़े दिनोके लिये ही। अभिवांछित योग न मिलनेके प्रति उन्हें निरन्तर खेद वर्तता रहा । उन्हे अपने श्रीगुरुके चरणसानिध्यमे न रह पानेकी कितनी वेदना सालती थी, जिसकी झलक उनके पत्रोमे मिलती है । उदाहरणार्थ :
0"पू. गुरुदेवकी स्मृति इस समय भी आ रही है व ऑखोमे गर्म ऑसू आ रहे है कि उनके संग रहना नही हो रहा है।"
-(पत्रांक : ४ कलकत्ता | २१-६-५२) O“यहाँ तो पुण्ययोग ही ऐसा नही है कि वहाँ ( सोनगढ़ )का लाभ शीघ्र-शीघ्र मिला करे । निवृत्तिके लिए जितना अधिक छटपटाता हूँ . उतना ही इससे दूर-सा रहता हूँ, ऐसा योग अबके हो रहा है। कई बार तो. फूट-फूट कर रोना-सा आ जाता है । शायद ही कोई दिवस ऐसा