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[१३] वर्द्धमान होता रहा । जीवन पर्यन्त सहज उदासीनता व अन्तर वैराग्य उनके परिणामोमे उग्रतासे वर्तता रहा । एक ओर उनकी प्रवर्तती उग्र अध्यात्मदशा व दूसरी ओर प्रबल उपाधियोगका परिचय उन्हीके पत्रोसे मिलता है। ज्ञानीकी ऐसी चित्र-विचित्र व अटपटी दशाओंके अनेक पहलुओको प्रदर्शित करते श्री सोगानीजीके पत्रोके कुछ अंश यहाँ उद्धृत है :
D"मै त्रिकाली सहज ज्ञानस्वभावी ध्रुव पदार्थ हूँ व प्रतिक्षण ज्ञानरूप परिणमन मेरा सहज स्वभाव है; जड़ आश्रित परिणाम जड़के है ।" पूज्य गुरुदेवश्रीके इस सिद्धांतकी चूंटीने क्षणिक परिणामकी ओरके वलणके रसको फीका कर दिया है व सहज स्वके सिवाय कोई कार्यमे रस नही आता
- (पत्रांक : १; अजमेर/२२-३-१९४९) - "यहाँ संग, असत्संगका है, उदय नीरस है । वहाँ (-सोनगढ़) का योग निकट भविष्यमे होनेके आसार दिखाई नही देते, अतः अत्यन्त उदासीनता है व व्यवहारमे तो वेभान-सी दशा हो जाया करती है।"
- (पत्रांक : ७; कलकत्ता/१८-५-५३) 0"स्वसंग, गुरुसंग व मुमुक्षुसंगके अलावा दूसरे संगको नही इच्छते हुए भी, अरे प्रारब्ध ! विषतुल्य संगमे रहना पड़ रहा है, खेद है।"
- (पत्रांक ९; कलकत्ता/५-७-५३) - "मोक्षमार्गीको कुटुम्बीजनो मध्ये सुख मिलता होवे, यह कल्पना ही गलत है।
'जाल सौ जग-विलास, भाल सौ भुवन पास, काल सौ कुटुम्ब काज, लोक-लाज लार सी।'
- ( श्री बनारसीदास) उसे तो निरन्तर आत्म-रमणता चाहिए । 'अरे! जिसे धार्मिक जनोके संग भी नही रुचते, उसे कुटुम्बसंग तो रुच ही कैसे सकता है !"
- (पत्रांक : १७; कलकत्ता/ २५-७-५४) - "व्यवहारसे व ख़ास तौरसे अशुभयोगसे पूर्ण निवृत्ति चाहते हुए