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[१२] स्वागतार्थ कलकत्तामें मुमुक्षुमण्डलकी स्थापना हुई तो उसके प्रथम अध्यक्षके रूपमे श्री सोगानीजीको मनोनीत किया गया था। * अन्तर वैराग्य : ___ जब श्री सोगानीजी शुरुआतमे कलकत्ता आये तब इस भागदौड़ व दाव-पेचवाली नगरीकी ६०-७० लाखकी आबादीमे उनके पास न रहनेके लिए स्थायी जगह थी और न खाने-पीने आदिकी कोई समुचित व्यवस्था; फिर भी, ऐसी प्रतिकूलतामें भी उन्हे भान होता कि मानों इस अथाह मानव-समुदायमें “मै एक अकेला ही सुखी हूँ", अरे ! निश्चित ही वे सुखी थे । आत्मानन्दका रसास्वाद करनेवाला स्वयंको सुखी ही क्या, सर्व सुखी महसूस करता है।
उन्हे संसार अरुचिकर था, फिर भी इस संसारके किचड़मे उन्हे फॅसना पड़ा । पूर्व निबन्धित प्रारब्धवश आ पड़े इस सांसारिक कीचड़मे अपने जड़ शरीरका योग देते हुए भी उनकी आत्मा निरन्तर अपने घोलनमे रहती। जब-जब भी उदयगत बाह्य संसार उन्हें अपनी ओर खीचता, गृहस्थीके जंजाल अपनी ओर आकर्षित करते तो वे यही कहते थे : 'अरे मुझसे कुछ भी आशा मत रखो, पंगु समझकर दो समयका भोजन शरीर टिकानेके लिए दो।
श्री सोगानीजीकी बुद्धिमत्ता, कार्यकुशलता व नीति सम्पन्नताके कारण उनके पास जब तब नये व्यवसायके अनेक प्रस्ताव आते थे परन्तु उपाधिको सीमित रखनेकी भावनावश व ऐसे प्रस्तावोको टाल दिया करते थे; यद्यपि उन्हे परिवारकी आवश्यकताओके बढ़ते बोझका ख़याल था। ____ यद्यपि पूर्व अज्ञानदशामे निबन्धित कर्मोके कारण उनका सांसारिकप्रवृत्तियोसे बाह्य सम्बन्ध तो नही टूट सका, बलवान उपाधियोग अन्त तक बना रहा, वे सर्व उपाधियोंके बीच निर्लिप्त रहते हुए भी प्रवृत्तिका भार ढोते रहे; तथापि उनकी आत्म-समाधिधारा जीवन पर्यन्त अबाधित वर्तती रही । ज्ञानधारा व कर्मधारा निरन्तर प्रवहमान रही । सहज पुरुषार्थ