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[६] अनन्त कर्तृत्वके बोझ तले दबी, छटपटाती उनकी आत्मा सहज उबर गई और उन्हें आत्मा भार मुक्त-सा हलका भासित होने लगा । अन्तरमे रोम-रोम झनझना उठा और स्वरलहरी निकली, अरे ! मिल गया ! जिस सत्यकी खोज थी, उसका विधि-प्रकाशक मिल गया ! तत्क्षण ही उन्हे पूज्य गुरुदेवश्री और उनके मंगलकारी वचनोंके प्रति श्रद्धा व अन्तर प्रीति स्फुरित हुई और अहोभाव छलक उठा, मन भक्तिविभोर हो उठा । और उन्होने 'आत्मधर्म में अंकित श्रीगुरुके भव्य चित्रको श्रद्धा-सुमनके रूपमे निम्न अर्घ अर्पित किया :
"उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्धकै; धवलमंगलगानरवाकुले जिनग्रहे जिननाथ महंयजै ।"
अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेवश्रीकी वाणीसे मुखरित रससे ओतप्रोत 'आत्मधर्म' का प्रत्येक शब्द दिव्य ज्ञानका स्फोट, प्रत्येक पृष्ठ सहजानन्दकी
ओर ले जानेवाला पथ-प्रकाश ! जैसे जैसे वे इसके पृष्ठ पलटते गये उनके वाच्य अवगाहनसे, अनादिरूढ व सर्व दोषोका जनक मिथ्यात्व और अज्ञानकी शक्ति क्षीण होने लगी । ज्ञानग्रंथियों यथोचित खुलती गई। आत्माके अनन्त लोककी यात्राकी दिशा उन्हें स्पष्ट होने लगी।
यद्यपि उनके बुद्धिजन्य स्थूल विपर्यास तो निरस्त हो गये, तथापि विकट समस्या खड़ी हुई कि उस परम सत्य तक पहुंचा कैसे जाए ? तदर्थ काफी प्रयास किया, परन्तु समस्याका निवारण नहीं हो सका, स्वयंसे कोई समाधान - विधि नही सूझ रही थी, तो अब क्या किया जाये ? - ऐसी एक नई विचित्र उलझन उत्पन्न हो गई । एकाएक सहज ही गुरुदेवश्रीकी छविका मनमें आविर्भाव हुआ और तभी मार्गप्रकाशकके चरण-सान्निध्य और दर्शन हेतु उनका मन तड़प उठा, बस ! अब चैन कहाँ ? उस संतकी पवित्र चरणरजको अपने मस्तकपर धारण करनेकी उनकी लालसा प्रतिक्षण तीव्रसे तीव्रतर हो चली ।