________________
[५] पॉच-पॉच घण्टो खड़े रहकर दैनिक पूजाऍ की; खड़गासन् ध्यान लियाका अभ्यास किया; एकान्तमें हठ योगियोंके हठवादको साधा; यहाँ तक कि एक बार तो गृहस्थ-बन्धनसे दूर होनेके लिए घर छोड़कर डेढ़-दो माह तक शहरकी ही धर्मशालामें एक विद्वान पण्डितको रखकर, रात-रात भर जागकर अनेक जैनग्रन्थोंका गहन परायण किया; घण्टों ही चितन-मनन-ध्यान आदि क्रियाओंमे रत रहते; तथापि जिस परम सत्यको पानेके लिए उनका रोम-रोम व्याकुल व बेचैन था, उसका साक्षात्कार उन्हें नहीं हुआ तो नही हुआ । अनमोल मनुष्यभवका एक अंश तो इस भटकनमें ही निकल गया । आत्मविरहसे उनका आर्त मन बार बार पुकारता कि यदि सत्यसे साक्षात्कार नहीं हुआ तो फिर मेरे इस नश्वर शरीरका इस असार संसारसे उठ जाना ही श्रेयस्कर है। * दिशा-बोध :
परन्तु 'जहाँ चाह है वहाँ राह है' तो फिर आत्मार्थी ही इससे वंचित क्यों ? पुरुषार्थसे जब सभीको इच्छित वस्तुकी प्राप्ति हो जाती है तो फिर 'सत्य ही चाहिए अन्य कुछ नही' ऐसे दृढ निश्चयीसे सत्य आख़िर कितने दिन दूर रहता ?? वैसा ज्ञानीधर्मात्माओंने भी कौल-करार किया ही है कि : "चैतन्यको चैतन्यमेसे परिणमित भावना अर्थात् रागद्वेषमेंसे नही उदित हुई भावना - ऐसी यथार्थ भावना हो तो वह फलती ही है।" ___ दैवयोगसे जैसे श्री महावीरस्वामीके जीवको उसके सिंहके भवमें सत् -उद्बोधन हेतु दो चारणऋद्धिवन्त मुनिराज आकाशसे पृथ्वी पर उतरे थे, वैसे ही सन् १९४६मे किसी महान् मंगल बेलामे श्री सोगानीजीको किसी साधर्मीने, सोनगढ़मे बिराजित दिगम्बर जैनधर्मके आध्यात्मिक सन्त श्री कहानजी स्वामीके प्रवचनोंको प्रकाशित करनेवाला मासिक "आत्मधर्म" पढ़नेके लिए दिया । प्रवचनप्रसादी स्वरूप सारगर्भित वाक्य 'षट् आवश्यक नही, लेकिन एक ही आवश्यक है" ने उनके अन्तरको झकझोर दिया, उन्हे गहरी चोट लगी। इसी वाक्यामृतके भावभासनसे मानो अनन्त कालसे