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[८] यद्यपि श्री सोगानीजीको गुजराती भाषाका ज्ञान नहीं था, फिर भी उन्हें पूज्य गुरुदेवश्रीकी गुजराती भाषासे कोई कठिनाई नही हुई । और वस्तुस्थिति भी यही है कि प्रयोग-प्रधानी जीवको कोई भाषा बाधक नही बनती। ___ श्री सोगानीजीके लिए तो पूज्य गुरुदेवश्रीकी धर्मसभा ही मानो प्रयोगशालामें रूपांतरित हो गई । और उन्होने वही अपना प्रयोग प्रारम्भ कर दिया । तदर्थ उन्होंने "ज्ञान अने राग जुदा छे" के वाच्यको डोर संभाली और उसके सहारे वे वाच्यके अन्तरतलमें उतरे और गहरे उतरते चले गये; उन्होंने वहां वर्तते राग तत्त्वका सूक्ष्म परीक्षण किया, तो उन्हे वह विभावांश, मलिन, स्वभाव-विरुद्ध, दुःखरूप और आकुलतामय भाव भासित हुआ। और वही साथ वर्तते ज्ञान तत्त्वके अन्वेषण पर उन्हें वह स्वभावांश, स्वच्छ, स्वभावभूत, सुखरूप और निराकुलतामय भासित हुआ - ऐसे उन्होने उक्त दोनो भावोंको यथार्थरूपसे पहचाना और वेदन पूर्वक उन दोनोंकी मूल जातिको समीचीनरूपसे सुनिश्चत किया । और फिर वे प्रगट ज्ञानांशमें वर्तते नित्य उदित सामान्यज्ञान परसे ज्ञानस्वभावमें सनिहित अनन्त अनन्त गुण-समुद्रकी ओर बढ़े तो वहाँ उन्हे आश्चर्यकारी अनन्त विभूतियोंसे विभूषित चैतन्य मणि-रत्नोंसे छलकते अपने स्वभावकी झलक 'भासित हुई। - इस भॉति अपने ही ऐसे सत्यस्वरूपके निश्चयसे उन्हें "सिद्ध स्वभावी, अनन्त सुख धारक मै ही ऐसा महान् पदार्थ !!" - ऐसा भाव भासित हुआ। * अतीन्द्रिय स्वरूप-स्वानुभूति :
श्री सोगानीजीको अपने परमोपकारी सजीवन ज्ञानमूर्ति श्री गुरुकी भवान्तकारी मंगल प्रवचनप्रसादीरूप देशनासे प्रतिभासित निज परम तत्त्वकी अनहद आश्चर्यकारी अपूर्व महिमा प्रदीप्त हो उठी ! जिससे उन्हें अपने परम चैतन्य तत्त्वका अभूतपूर्व रस घोलन चालू हो गया । अनादिसे सुषुप्त पुरुषार्थ संचेतित हुआ और उनका चैतन्यवीर्य स्फुरित हो उठा । तदनुसार