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[७] * सद्गुरुका प्रत्यक्ष योग :
अंततः वह चिरप्रतीक्षित सुमंगल घड़ी उदित हुई । श्री सोगानीजी सन् १९४६में प्रथम बार अपने आराध्य श्रीगुरुके पावन चरणोमे पूर्णतः नत होने स्वर्गनगरी (-सोनगढ़) जा पहूँचे ।
श्री सोगानीजीने अपने आराध्य साक्षात् चैतन्यमूर्तिकी पवित्र चरणरजको मस्तकपर चढ़ाने हेतु ज्यो ही अपना सिर नवाया तो उन्हे ऐसा महसूस हुआ मानो उनके अनादिरूढ मिथ्यात्वकी चूले ढीली होने लगी है। और वे अपने श्रीगुरुकी दिव्य मुखमुद्राको भावविभोर होकर, मंत्रमुग्ध-से अपलक निहारते हुए उनकी पारदर्शी चिन्मय मुद्राका निदिध्यासन करते रहे तो लगा जैसे श्रीगुरुके तेजस्वी मुखमण्डलकी दीप्तिसे उनका उदयगत मिथ्यात्व भी वाष्पशील हो चला हो । - ऐसी जात्यंतर स्थितिने श्री सोगानीजीके अंतरआलोडनकी दिशा स्वकेन्द्री होने योग्य अन्तर अवकाश बना दिया, जिससे उनके ज्ञानने स्वरूप-निश्चय-योग्य क्षमता ग्रहण की; उधर आत्मरससे ओतप्रोत वक्ता श्रीगुरुकी दिव्यवाणी मुखरित हुई, और उन्हे प्रत्यक्ष सत्-श्रवणका प्रथम ( अपूर्व ) योग मिला । * स्वरूप-निश्चय :
जैसे चातक पक्षी स्वाति-बूंदके लिए 'पी कहॉ...पी...कहाँ'की रट लगाये रहता है, वैसे ही श्री सोगानीजीको चिरकालसे 'सत्य...सत्य की अन्तर रटन लगी हुई थी। और जैसे चातककी प्यास केवल स्वाति-बिदुसे ही बुझती है, वैसे ही उनके अन्तरमे धधकती - सत्यके अभावजन्य अशान्तिकी - दाहको श्रीगुरुकी पियुष वाणीकी शीतल फुहारसे शीतलता सम्भव थी। और जैसे स्वाति-बिदु सीपके सम्पुटमे पहुंचकर मोती बन जाता है, वैसे ही महान् मंगलमयी क्षणमे श्रीगुरुके श्रीमुखसे निर्झरित बोधामृत "ज्ञान अने राग जुदा छे"के भावको उन्होने चित्तमे अवधारण किया जो अलौकिक चैतन्य चिन्तामणिके रूपमें प्रकटित हुआ।