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[२] * श्री सोगानीजीकी जीवनयात्रा :
सन् १९१२मे, वैसाख सुद-११, विक्रम संवत १९६९ के दिन विधिकी किसी धन्य पलमे बालक 'निहाल'को जन्म देकर उनकी माताश्रीकी कोख भी निहाल हो गई। बालकका मनोहर रूप व सौम्य निश्छल मुद्रा सभीको सहज ही मोहित कर डालती । बालककी बाल सुलभ 'चन्द्र' कलाएँ व चेष्टाएँ भी सभीका मन लुभाती रहती । भावी महामनाके पाद-स्पर्शित रजकण भी मानों गौरवान्वित हो, धन्य हो गये।
श्री सोगानीजी जन्मजात असाधारण प्रतिभाके धनी, विचक्षण व मेघावी रहे; परिणामतः उन्होने अति अल्प प्रयाससे ही यथेष्ट लौकिक शिक्षा प्राप्त कर ली । वे सहज चेतना, जिज्ञासुवृत्ति, निर्भीक, कार्यनिष्ठ व परिश्रमशील होनेके साथ साथ धुनके धनी भी थे। किसी कार्यको प्रारम्भ कर देनेके बाद उसे पूरा किये बिना उन्हे चैन कहाँ ?
इसी बीच पारिवारिक दायित्वबोधने उन्हे परिवारके उपजीवन के निर्वाह हेतु सहयोगी बना दिया, अतः उन्होने अजमेरमे ही एक दुकान पर नौकरी करना स्वीकार कर लिया । उनकी प्रामाणिकता, प्रबन्ध-पटुता, व्यवहार-कुशलता, कर्तव्यनिष्ठतादि सद्गुणोसे प्रभावित होकर दुकान मालिकने परिस्थितिवश कालान्तरमें अपनी दुकानका स्वामित्व ही श्री सोगानीजीको सौप दिया।
तथापि उनकी बालावस्थामे ही विलक्षण प्रकृति थी । कार्यनिष्पन्न होते ही वे गम्भीर हो, एकान्तमें बैठ किन्ही विचारोमे खो जाया करते थे। उनकी भीतर तक झॉक लेनेवाली तेज ऑखे, समाधिस्थ-से रहते अधर-सम्पुट उनकी जिज्ञासुवृत्तिको रेखांकित करते रहते । उनकी ऐसी वृत्ति घरके बड़ोको विस्मित करती या सालती थी। * गृहस्थाश्रम :
श्री सोगानीका सन् १९३४मे बाईस वर्षकी वयमे अजमेरके ही