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बहुत कहना अत्यावश्यक जान पडता है । इसके कहनेकी कोई जरूरत नहीं है कि महाराजश्रीने जैन धर्मके सिद्धान्तोकी तरफ एतद्देशीय और पाश्चात्य विद्वानों के ध्यान आकर्षण करनेकी अवभनीय एवं स्तुतिपात्र कोशिष की है। और हर्षका विषय है कि इसमें उन्होंने बहुत सफलता प्राप्तकी है। मेरा जैन धर्मके उपर जो इतना अनुराग है वह महाराजजी की कृपाका प्रताप है । मुझे यह बार बार कहना है कि भाषा शास्त्रके विषयमें भी उन्होंने मुझे अमूल्य मदद दी है । मुझे उनकी मददका सर्व साधारणमें स्वीकार करनेकी बहूत खूशी हुइ है । मैं महाराजश्रीका सदाके लिये ऋणी बना रहुंगा । क्योंकि अभाग्य वश में उनका ऋण चुकानेको असमर्थ ही नहीं, बहुत गरीब हूँ।
जैन दर्शन बहुत ही उंची पंक्तिका है । इस्के मुख्य तत्त्व विज्ञान शास्त्रके आधार पर रचे हुए हैं। ऐसा मेरा अनुमान ही नहीं, पूर्ण अनुभव हैं । ज्यों ज्यों पदार्थ विज्ञान आगे बढ़ता जाता है, जैन धर्मके सिद्धान्तोंको सिद्ध करता है और मैं जैनियोंको इस अनुकूलताका लाभ उठानेका अनुरोध करता हूँ। जैन धर्मके तात्विक ग्रंथ जहां तक बने शीघ्र पाश्चात्य भाषाओंमे तरजमा कराकर प्रकाशित करवाने चाहिये । मेरा यह अनुमान है कि जैन पुस्तक प्रकाशित होजानेसे बडे तत्त्वज्ञानियोंको और भाषाशास्त्रियोंको अमुल्य लाभ होगा। जो आप चाहें तो संसारके ज्ञानमें बहुत कुछ तरक्की ऐसे करनेसे हो सक्ती है । मैंने मेरे कई मित्रो द्वारा खेद पूर्वक यह सुना है कि कई जैन पुस्तकें, जो भंडारमें मौजूद हैं, उन्हें संशोधनार्थ मिल नहीं सक्ती ओर इस तरहसे उनका बहुतसा कार्य अटका हुवा अधुरा पड़ा है । मुझे
और सब ही विद्वानोंको आचार्य श्री विजयधर्मसूरिकी मदद बहुत लाभदायक हुई और वे सहस्रबार धन्यवादके पात्र हैं।
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