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निमिधर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित है उसमें मेरू की पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अर्द्ध चन्द्राकार पूर्व विदेह, शक्छाकार जम्बूद्वीप, मण्डलाकार अवरगोदानीय और समचतुष्कोण उत्तर कुरु ये चार द्वीप स्थित हैं। इन चारों के पाव भागों में दो-दो अन्तर्द्वीप हैं। उनमें से जम्बुद्वीप के पास वाले चमर द्वीप में राक्षसों का और शेष द्वीपों में मनुष्यों का निवास है । जम्बू द्वीप में उत्तर की ओर ६ कीटाद्रि (छोटे पर्वत) तथा उनके प्रागे हिमवान पर्वत अवस्थित है। उसके आगे मनवतृप्त नामक अगाध सरोवर है, जिसमें से गंगा सिन्धु बक्ष और सीता ये नदियाँ निकलती हैं। उक्त सरोवर के समीप में जम्बू वृक्ष है। जिसके कारण दर डीए का "ज" ऐया भागा द्वीप के नीचे २०,००० योजन प्रमाण अवीचि नामक नरक हैं। उसके ऊपर क्रमश: प्रतापन प्रादि सात नरक और हैं। इन नरकों के चारों पाश्वं भागों में कुकूल, कुणप, क्षुरमार्गादिक और खारीदक (असि पत्रवन, श्यामशवलश्व-स्थान, अयः शाल्मली बन और वैतरणी नदी) ये चार उत्सद हैं। इन नरकों के धरातल में पाठ शीत नरक हैं । भूमि से ४०,००० योजन ऊपर जाकर चन्द्र सूर्य परिभ्रमण करते हैं। जिस समय जम्बूद्वीप में मध्याह्न होता है उस समय उत्तर कुरु में अर्द्धरात्रि, पूर्व विदेह में अस्तगमन और अवरमोदानीय में सूर्योदय होता है । मेरू पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में उसके चार परिखण्ड (विभाग) हैं, जिन पर कम से यक्ष, मालाधार, सदामद और चातुमहाराजिक देव रहते हैं। इसी प्रकार शेष सात पर्वतों पर भी देवों के निवास हैं । मेरू शिखर पर त्रयस्त्रिंश (स्वर्म) है। इससे ऊपर विमानों में याम तुषित ग्रादि देव रहते हैं। उपरोक्त देवों में चातुर्महाजिक और त्रयस्त्रिंश देव रहते और मनुष्यवत् कामभोग भोगते हैं। याम तुषित आदि क्रमशः प्रालिंगन, पापिसंयोग हसित और अवलोकन से तुषित को प्राप्त होते हैं । उपरोक्त काम धातु देवों के ऊपर रूपधातु देवों के ब्रह्मकायिक मादि १७ स्थान हैं। ये सब क्रमश: ऊपर-ऊपर अवस्थित है । जम्बूद्वीपवासी मनुष्यों की ऊँचाई केवल ३ हाथ है। मागे क्रम से बढ़ती हुई मनन देवों के शरीर की ऊँचाई १२५ योजन प्रमाण है।
५. प्राधनिक विश्व परिचय ति. पं. प्र. ६० । एच० एल० जन का भावार्थ-जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह नारंगीबत् चपटा गोल स्वण्ड है । जो सभी अग्नि का गोल था । परन्तु पीछे से जिसका ऊपरी तल ठंडा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्वाला धधक रही है।
प्रकृत में खड़े किये हुए ध्वजयुक्त डेढ़ भृदंग के सदृश उस सम्पूर्ण लोक का आकार होता है इसको एकत्र करने पर उस लोक का वहल्य सात राजु और ऊँचाई चौदह राजु होती है । इस लोक की भूमि और मुख का ब्यास पूर्व पश्चिम की अपेक्षा एक ओर क्रमशः सात, एक पांच और एक राजु मात्र होती हैं। तथा मध्य में हानि होती है।
आकाश में स्थित चारों सदृश आकार वाले खंडों को ग्रहण करके उन्हें विचार पूर्वक उभय पक्ष में विपरीत ऋम से मिलना चाहिये। इसी प्रकार अवशेष क्षेत्रों को ग्रहण करके और पूर्व के समान ही प्रतर प्रमाण करके वाइल्य में मिला दें। इस क्रम से जब तक अवशिष्ट क्षेत्र समाप्त न हो जाये तब तक एक-एक प्रदेश वाहल्यरचना एक-एक प्रतर प्रमाण को ग्रहण करना चाहिये ।।
इस प्रकार सिद्ध हुये त्रिलोक स्वरूप क्षेत्र की मोटाई चौड़ाई और ऊंचाई का हम वैसा ही वर्णन करते हैं। जैसा कि दृष्टिवार अङ्ग से निकलता है।
दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजु है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि तथा मुख का ध्यास करते कम से सात, एक पांच और एक राजु हैं । तात्पर्य है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजु है और विस्तार क्रमशः अघोलोक के नीचे सात राजु मध्यलोक में एक राजु, ब्रह्म स्वर्ग पर पांच राजु और लोक के अन्त में एक राजु है । सम्पूर्ण मोक की ऊँचाई चौदह राजु प्रमाण है। मध मृदंग की ऊंचाई सम्पूर्ण मृदंग की ऊंचाई के सश है अर्थात् अर्थ मृदंग सरश अधोलोक जैसे सात राजु ऊंचा है उसी प्रकार पूरणं मृदंग के साथ कम्बलोक भी सात ही राजु ऊंचा है।
क्रम से उघोलोक की ऊंचाई सात राजु, मध्यलोक की ऊंचाई एक लाख योजन और कर्वलोक की ऊंचाई एक लाख पोजन कम सात