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बात को मन में भी स्थान नहीं देना चाहिए । ज्ञानी ऐसे भोले नहीं होते । यानी कोई अगर दूसरी पटरी पर ले जाना चाहे, तब भी नहीं चूकते न !
जहाँ कपट है, वहाँ पर भोलापन होता है । कोई उल्टी बात कान में डाल जाए और उसे सही मान ले, वह भोलापन । वहाँ पर उपाय तो यही है कि ड्रामेटिक सुनना ज़रूर है, उसमें रुकावट नहीं डालनी है लेकिन आधार तो सम्यक् का ही रखना है। हर कोई अपनी-अपनी समझ के अनुसार बोलता है, लेकिन आसरा तो सम्यक् बात का ही लेना चाहिए ।
अक्रम विज्ञान ऐसा है कि मोक्षमार्ग के चाहे कैसे भी बाधक कारण आकर खड़े रहें, उसके बावजूद भी उसके पार निकला जा सकता है। जो ‘मुश्किल है, मुश्किल है' करते हैं, उनके लिए मुश्किल हो जाता है।
'मुझे क्या ?' ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। उसे भेद डालना कहा जाएगा। 'मुझे क्या ?' ऐसा रहे, तब प्रतिक्रमण कर-करके वापस आना है। 'मुझे क्या ?' कहा तो निस्पृह हो गया। उससे उसी को भयंकर नुकसान होगा |
मोक्ष का मार्ग चूक नहीं जाए, वही देखते रहना है !
'मेरी पीठ पीछे क्या कह रहे थे ?' ऐसा हुआ कि वहीं से मोक्षमार्ग खत्म। जिसे जो कहना हो, वह भले ही कहे। हमें अपने आपको छुपाना होगा, तभी यह प्रश्न खड़ा होगा न !
'कान लगाकर सुनना', वह भी भयंकर रोग है । यदि अपना गुनाह हो और कोई कहे तो उसमें क्या हर्ज है ? कोई अपने लिए चाहे कुछ भी कहे, वह भले ही कहे। अच्छा ही है । हमें स्ट्रोंग रहने की ज़रूरत है। छोटी सी भूल भी भयंकर रूप से भ्रमित कर देती है ! उसमें खुद में कपट होता है, इसीलिए तो कान लगाकर सुनने का मन होता है ।
दूसरे की बात सुनकर तो अपना दिमाग़ बिगड़ जाता है। वह बात कहने वाला सहजभाव से कह जाता है लेकिन अपनी खीर में नमक डल गया उसका क्या ? अपनी क्या दशा होगी ?
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