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किरण २]
अनेकान्त-रस-लहरी
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है वह वस्तुको सब मोरसे देखती है--उसके सब पहलुओं और एकची लाइनकी अपेक्षा बड़ी ही इस कहने में पर नजर गलती है-इसी लिये उसका निर्णय ठीक विरोधकी कोई बात नहीं है। विरोध नहीं पाता है जहां होता है और वह 'सम्यग्रष्टि' कहलाती है। यदि उन्होंने छोटा-बड़ापन जैसे सापेच धर्मों अथवा गुणोंको निरपेकऊपर नीचे रष्टि डाल कर भी पैसा कहा है तो कहना रूपसे कथन किया जाता है। मैं समझता हूंब तुम इस चाहिये कि वह उनका कदाग्रहहै-हठधर्मी है; क्योंकि विरोध-प्रविरोधके तत्वको भी और अच्छी तरहसे समम उपर नीचे देखते हुए मध्यकी खाइन सर्वथा छोटी या गये होगे। सर्वथा बड़ी प्रतीत नहीं होती और न स्वरूपसे कोई वस्तु विद्यार्थी-हाँ, मापने खूब समझा दिया है और मैं सर्वथा छोटी या सर्वथा बड़ी हुमा करती है।
अच्छी तरह समझ गया हूँ। अध्यापक-मानलो, तुम्हारे इस दोष देनेसे बचनेके अध्यापक-अच्छा, अब मैं एक बात और पूछता लिये एक तीसरा विद्यार्थी दोनों एकान्तोंको अपनाता है-- ई-कल तुम्हारी कक्षामें जिनदास नामके एक स्थावादी-- 'छोटी ही है और बढ़ी भी है' ऐसा स्वीकार करता है, स्याद्वादन्यायके अनुयायी-माए थे और उन्होंने मोहन परन्तु तुम्हारी तरह अपेक्षावादको नहीं मानता। उसे तुम सकेको देख कर तथा उसके विषय में कुछ पूछ-
साकर क्या कहोगे?
कहा था "यह तो छोटा है"। नन्होंने यह नहीं कहा कि विद्यार्थी थोडा सोचने लगा, इसनेमें अध्यापकजी
'यह छोटा ही है.' यह भी नहीं कहा कि वह सर्वथा छोटा बोल उठे-'इसमें सोचनेकी क्या बात है? उसका कथन
है और न यही कहा कि यह 'भमुककी अपेक्षा अथवा भी विरोध-दोषसे दूषित है; क्यों कि जो अपेक्षावाद अथवा
अमुक विषयमें छोटा है' तो बतजामो उनके इस अथनमें स्याद्वाद-न्यायको नहीं मानता उसका उभय एकान्तको
क्या कोई दोष भाता है। और यदि नहीं पाता तो लिये हुए कचन विरोध-दोषसे रहत हो ही नहीं सकता--
क्यों नहीं? अपेक्षावाद अथवा 'स्यात' शब्द या स्पात शब्दके भाशय इस प्रश्नको सुन कर विद्यार्थी कुछ बरसेमें पब गया को लिये हये 'कथंचित्' (एक प्रकारसे) जैसे शब्दोंका और मन-ही-मन उत्तरकी खोज करने लगा। जब उसे साथमें प्रयोग ही कथनके विरोध-दोषको मिटाने वाला है। कई मिनट होगये तो मध्यापकजी बोल उठे--'तुम तो 'कोई भी वस्तु सर्वथा छोटी या बड़ी नहीं हुभा करती' बड़ी मोचमें पड़ गये ! इस प्रश्न पर इतने सोच-विचार यह बात तुम अभी स्वयं स्वीकार कर चुके हो और वह का क्या काम? यह तो स्पष्ट ही है कि जिनदास स्याद्वादी ठीक है, क्योंकि कोई भी वस्तु स्वतंत्ररूपसे अथवा स्व- है, उन्होंने स्वतंत्ररूपसे 'ही' तथा 'सर्वथा' शब्दोंका साथमें भावसे सर्वथा छोटी या बड़ी नहीं है--किसी भी वस्तुमें प्रयोग भी नहीं किया है, और इस लिये उनका कथन प्रकट छोटेपन या बदेपनका व्यवहार सरेके भाश्रय अथवा रूपमें स्यात' शब्द प्रयोगको साथमें न लेते हुए भी पर-निमित्तसे ही होता है, और इस लिये उस पाश्रय स्यात्' शब्दसे अनुशासित है--किसी अपेक्षा विशेषको अथवा निमित्तकी अपेक्षाके विना वह नहीं बन सकता। लिये हुए है। किसीसे किसी प्रकारका छोटापन उन्हें विषअतः अपेक्षासे उपेक्षा धारण करने वालोंके ऐसे कथनमें चित था. सीसे यह जानते हुए भी कि मोहन भनेकॉसे सदाही विरोध बना रहता है। 'ही' की जगह 'भी' अनेक विषयों में पदा' है. उन्होंने अपने विचलित अर्थक का भी प्रयोग कर तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रत्युत अनुसार उसे उस समय 'छोटा' कहा है। इस कथनमें इसके, जो स्याद्वादन्यायके अनुयायी है--एकअपेक्षासे बोषकी कोई बात नहीं है तुम्हारे हदय में शायद यह छोटा और दूसरी अपेक्षासे बड़ा मानते हैं- साथमें यदि प्रश्न उठ रहा है कि जब मोहनमें छोटापन और बडापन ही शब्दका भी प्रयोग करते है तो उससे कोई बाधा नहीं दोनों ये सब जिमदासजीने रसे छोटा क्यों कहा, बड़ा क्यों माती-विरोधको जरा भी अवकाश नहीं मिलता, जैसे नहीं कह दिया, इसका उत्सर इतना ही है कि-'मोहन तीन इंची खाइन पांचांची खाइनकी अपेक्षा छोटी ही है उनमें, कब, स्पमें, बनमें, विद्या, चतुराई और