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अनेकान्त
" x x x x ग्रन्थपरीक्षाके लेखक महोदय ने एक अलब्धपूर्व कसौटी प्राप्तकी है, जिसकी पहलेके लेखकाको कल्पना भी नहीं थी और वह यह कि उन्होंने हिन्दुओोंके स्मृतियों और दूसरे कर्मकारीय प्रत्यके सेकड़ों लोकों को सामने उपस्थित करके बतला दिया है कि उक्त ग्रन्थोंमें मे चुराचुग कर और उन्हें तोड़ मरोड़ कर सोमसेन श्रादिने अपने २ 'मनमतीके कुनबे' तैयार किये हैं। जांच करने का यह ढंग बिल्कुल नया है और इसने जैनधर्मका तुलनात्मक पद्धतिले अध्ययन करने वालोंके लिये एक नया मार्ग खोल दिया है ।"
ये परीक्षा लेख इतनी सावधानीसे और इतने अकाट्य प्रमाणोंके श्राधारसे लिखे गये हैं कि अभी तक उन लोगों की ओर से जोकि त्रिवर्णाचागदि भट्टारकी साहित्यके परमपुरस्कर्ता और प्रचारक है (१२ वर्षका ममय मिलने पर भी ) इनकी एक पंक्तिका खण्डन नहीं कर सके हैं और न श्रम श्राशा ही है । x x x x गरा यह कि यह लेखमाला प्रतिवादियोंके लिये लोहे के चने हैं।”
[ वर्ष ६
अपनी कविताओ, सामाजिक समुत्थानकी बात कहते समय भी था की निगाह बराबर राष्ट्र पर ही रही है 'मेरी भावना के अन्तमें आपने कहा है
करें |
बन कर सब 'युगवीर' हृदयसे, देशोन्नति रत रहा वस्तुस्वरूप विचार खुशीसे. सब दुख संकट सहा करें। 'घनिक संवोधन' कवितामें आपने धनिकों को देशाभिमुख रहने की ही प्रेरणा दी है—
चक्कर में विलास
इन लोहे के चनोंका निर्माण कितनी लगनसे हुआ है, उसका कुछ अनुमान इससे हो सकता है कि इन लेखों के लिखने में आप इतने तहान थे कि आपको उन्निद्र होगया और १|| माम तक आपको नींद नहीं आई। एक दिन ही नीन्द न आये, तो दिमाग भिन्ना जाता है, पर आपके लिये यह निर्माण इतना रस पूर्ण था, आप उसमें इस कदर डूबे हुए थे कि आपको जग भी कमजोरी महसूस नहीं हुई और श्राप बराबर काममें जुटे रहे ।
भारतमाताके चरणोंमें
पीके कार्यका क्षेत्र जनसाहित्य, इतिहास और समाज रहा, इतना ही जान कर यह सोचना कि वे एक साप्रदायिक पुरुष हैं, सत्यका उतना ही बड़ा संहार है जितना राष्ट्रनिर्माना श्रद्धानन्दको साम्प्रदायिक नेता मानना । साम्प्रदायिक विषयोंमें आप कभी नहीं पड़े और आपका दृष्टिकोण सदैव राष्ट्रीय रहा। १६२० से आप बराबर खादी पहनते हैं और गान्धीजीकी पहली गिरफ्तारी पर आपने यह व्रत लिया था कि जब तक वे न छूटे, आप बिना चर्खा चलाये, कभी भोजन न करेंगे ।
वियना
फंम मत भूलो, अपना देश !
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कला कारखाने खुलवा कर,
मेटो सब भारत के क्लेश । करें देश-उत्थान सभी मिल,
फिर स्वराज्य मिलना क्या दूर ? पैदा हो 'बुगी देश
फिर क्यों दशा रहे दुख-पूर ? समाज उनके लिये राष्ट्र का ही अंग है। समाज-संबीघन' करते हुए जब वे कहते हैं
सर्वस्व यों खोकर हुआ,
केसा
तू दीन दीन अनाथ है ! पतन तेरा हुआ,
तू रूढ़ियोंका दास है !!
तब उनके मनमें भारतराष्ट्र का ही ध्यान व्यास होता है । यह निश्चय है कि यदि वे खोजके इस कार्यमें न पड़े इंति, तो उनकी यह ६७ वीं वर्षगांठ सम्भवतः देशकी किसी जेल में ही मनाई जाती !
जीवनभरका कार्य
उनकी जीवन व्यापी साहित्य साधनाका मूल्याँकन करने के लिये विस्तृत स्थानकी आवश्यकता है, फिर भी संक्षेपमें यहां उसका उल्लेख श्रावश्यक है
जैनसमाज में पात्रकेसरी और विद्यानन्दको एक समझा जा रहा था। मुक्तार साहबने अपनी खोजके आधार पर दृढ़
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