Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 310
________________ करण] जीवन और धर्म वरावा हाकर हाथो, चतुप्रांक वशाभूाही पतंगा. नासिका "काहू घर पुत्र जायो, काहू के वियोग आयो, के वश होकर भ्रमर और कानोंके प्राचीन होकर मृग काहू गग-रंग, काहू रोधारोई करी है। जब अपने अपने प्राए गंवा देते हैं तब हम लोगोंकी उस जहां भान उगत उाह गीत-गान देखे, समय कितनी दुर्दशा होगी जिस समय पाँचों इन्द्रियों का मांझ समै ताहि थान हाय हाय परी है। श्रानन्द एक साथ प्राप्त करना चाहेंगे। ऐसी जगरीतको न देवि भयभीत होय, सभी निरंतर यह देखते ही रहते हैं और स्वयं भी हा हा मूद नर तेरी मौत कौन हरी है। अनुभव करते ही रहते है कि संमारके नाना प्राणी नाना मनुष्य जनम पाय सोवत विहाय जाय, प्रकारकी, अपनी अभिलाषा पूनिके लिए क्रियाएं करते हुए खोवत करोरनकी एक एक घरी है।" भी, सुख प्राप्तिका लक्ष्य सम्मुख रख कार्य करते हुए भी - जैनशतक सुखा प्रतीत नहीं होते। एक न एक चिता, कोई न कोई इसी समस्या को दुग्ब निवारणकी जटिल समस्याका इल व्यथा, वेदना या पीड़ा उनके श्रागे नग्न तांडव करनी ही करने के लिए. सुलझाने के लिए. उन विगगी. निर्मोही अंतरहती है। आज हम जिस मोटे २ मखमली सुकोमल गहों गत्माश्राने सदुपदेश देकर जन कल्याण होने की सुविधाके पर पैर पसारते हुए पाते हैं, उसी को इन्हीं श्राँग्बोंसे एक लिए समय २ पर अपने मत प्रस्थापित किए, अपने २ एक दिन एक २ पैसेके लिए सड़को पर भिक्षा मागते हुए विचारोंको सिद्धान्तो-मन्तव्यों का स्वरूप दिया और तदनुसार देख मकते हैं। मचमुच, संमार एक विशाल एवं विराट उनका प्रचार करनेके लिए सम्प्रदायों की स्थापना भी की। रंगमंच है जिस पर हम अपने जीवन-क्षणिक जीवनका ऐसे एक दो नहीं. कई मत एवं सम्प्रदाय प्रस्थापित हुए नाटक खेलते रहते हैं। यदि हम विश्वको रंगमंच और और सवलित भी हुए। जिनके विचार कुछ महत्वपूर्ण थे, अपने जीवनम परिवर्तन होने वाली परिस्थितियांको नाटक जिनके विचारों सिद्धान्तों में कुछ तथ्याँश था, जिनके मन्तही मान कर चले तो कोई बात नहीं; हम इन्हें वास्तविक व्यों में कुछ मार्मिकता एवं हृदयकी पुकार थी, वे तो अब मानते हैं और इससे यह होता है कि हमें आनंद और भी विश्वके वक्षस्थल पर अपने अस्तित्वको बनाए बैठे हैं. विषाद होना है। इस संसार में ऐसा एक भी प्राणी उपलब्ध नहीं और जिनके मिद्धान्त महत्व हीन, कारे प्रलाप मात्र अथवा होगा जिसका मनस्थिात निगकांक्षी और निरभिलाषिणी अनुकरण मात्र ही थे वे समूल नष्ट भी हो गए। ज्यों ज्यों हो । एक कविने हमारी मनोवृत्तिका सूक्ष्मावलोकन कर समय व्यतीत होते गया त्यो त्यों उन विचारकोंने अपने जो निचोड़ निकाला है वह इस प्रकार है सिद्धान्ती एवं सम्प्रदायाँका "धर्म" नामका परिधान पहिना "दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान । दिया वे अब सब धर्मसे सन्बोधित किए जाने लगे-यथा कहूँ न सुख संसारमें, सब जग देख्यो छान " जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, मुस्लिम धर्म, वैदिक -भूधरदास धर्म इत्यादि । वही कवि एक स्थान पर संसार दशाका सत्य पूर्ण लोग कहते हैं- धर्मका जीवनमे प्रगाढ सम्बन्ध है। नग्न चित्र उपस्थित कर हम लोगों के अंतरके पट खोलने धमके बिना सारा जीवन और उस जीवनसे सम्बन्धित संमार का उपदेश देते हुए कहना है कि हे मूढ़ नर ! तेरी बुद्धि सूना है। धर्म से जीवन में सौंदर्य, शान्ति और संतोषका किसने चुराली है, जरा सोच और विचार तो कर करोड़ का संचार होता है। धर्मसे इहलौकिक एवं पारलौकिक करोड़ रुपयों के बराबर एक २ घडीका मूल्य है ! संसारका जीवन प्रानन्दमय बनता है। धर्मशून्य जीवन, जीवनहीन, क्या? उसकी तो यही दशा रही है और रहेगी। अपना जीवन अर्थात् जड़ जीवन है जिसके अस्तित्वका होना न कल्याण क्यों नहीं करता? जरा पाठक भी उसीके शब्दोंमें होना भी कहा जा सकता है। यह सब वास्तवमें यथार्थ देखलें कि वह किन मार्मिक शब्दों में हृदयकी बात कह एवं महत्वपूर्ण है अथवा नहीं, या तो बादमें देखा जायगा, परन्तु, इनके पीछे एक अंधविश्वास अथवा रूढ़ि या

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436