Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 338
________________ किरण ] तीर्थकर क्षत्रिय ही क्यों ? २६७ प्राप्त किया। उस समय राजाने उनसे कहा कि आज तक इन्हीं महागज भद्रसेनपर आरुणी ऋषिने अभिचार यह विद्या क्षत्रियों की ही थी। आज यह पहिला ही कर्म किया था। अवसर है जब मैं इस विद्याको एक ब्राह्मणके लिए दे ब्राह्मण-ग्रंथों में आया है कि "प्रजापति क्षत्रम । रहा हूँ। "न प्राकत्वतः पुरा विद्या ब्राह्मणान् गच्छति"। शतपथ ग३।११अर्थात प्रजापति (ब्रह्मा) क्षत्रिय शतपथ १०-६-१ तथा छान्दोग्य उपनिषद् ५-२ में हीथा। यही बात यजुर्वेद १४।में लिखी हैं तथाचलिखा है कि ५ वेदज्ञ ब्राह्मणोंको इस बातकी जिज्ञासा यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुदः। हुई कि आत्मा क्या है ? वे लोग जाननके लिए उद्या- पर्जन्यो यमो मृत्यु ईशान इति क्षत्रात्परं नास्ति ।। लक-श्रारुपी ऋषिके पास गये परन्तु उसको भी इस - शत०१४।४।२३ में सन्देह था। वह उनको कैकेयगज (अश्वपति) के अर्थात उपरोक्त जितने भी यम, वरुण, सोम, पास ले गया। वे लोग हाथमें समिधा लेकर शिष्य- रुद्र, ईशान, इन्द्रादि देव हैं वे सब क्षत्रिय हैं। इस वत उस राजाके पास गये। राजाने आत्मज्ञानका लिए क्षत्रियसे उत्तम कोई नहीं है। इसी प्रकार वैदिक उपदेश देकर उनकी सब शंकाओंका समाधान कर साहित्यमें क्षत्रियोंकी महिमाका कथन है। दिया। यह कैकेय देश नेपालकी तलैटी में श्रावस्तीस उपरोक्त प्रमाणोंसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि उत्तर-पूर्व में था, इमकी राजधानी श्वेताम्बिका नगरी पूर्वसमयमें आत्मविद्याको जानने वाले क्षत्रिय ही थे। थी। ईसाके अनुमान १००० वर्ष पूर्व यहांका राजा ब्राह्मणोंका धर्म क्रियाकाँर (याक्षिक) धर्म था। वर्तप्रदेशी श्रमणोपासक था। बौद्ध ग्रंथोंसे ज्ञात होता है मान समयके ऐतिहासिक विद्वान आर० सी० दत्तने कि श्रावस्तीस कपिलवस्तुको जाते हुए श्वेताम्बी बीच अपनी 'सभ्यताका इतिहास' नामक पुस्तकमें लिखा है में आती थी ! जैन-प्रन्थों में भी इसकी पुष्टि होती है। कि अवश्यमेव क्षत्रियोंने ही इन (आत्मज्ञानक) उत्तम वर्तमान सीतामढ़ी शायद श्वेताम्बीका ही रूपान्तर विचारोंको चलाया। है। वर्तमान समयके कुछ इतिहासज्ञोंका यह कथन उपनिषद् शास्त्र अध्यात्मविद्याके शाख हैं। उनमें कि कंकेय देश व्यास और सतलजके बीचका देश था स्थान स्थान पर यज्ञादिक व्यर्थक क्रियाकाँडोंका भ्रमपूर्ण है। विरोध किया गया है। यथाइसी प्रकार कौशीतिकी उपनिषद्में लिखा है कि "प्लवा एते अहढा यज्ञरूपाः"-मुण्डकोपनिषद् चित्रगांगयनी राजाके पास दो ब्राह्मण समितपाणि अर्थात्-यह यज्ञरूपी क्रियाकांड जीर्ण शीर्ण गये और आत्मज्ञान प्राप्त किया। उसी उपनिषद् में टूटी हुई नौकाओंके समान हैं, जिन पर चढ़कर पार भारतके प्रसिद्ध विद्वान गाग्यं बालाकी और काशीराज उतरने की इच्छा वाला मनुष्य अवश्य ही डूब जाता है। अजातशत्रुके वादविवादका वर्णन है। इस अभिमाना जहां अध्यात्म-विद्याके विषयमें क्षत्रियोंका महत्व ब्राह्मणने राजाको शाखार्थके लिये ललकारा। अतः था वहां पूर्वदेशको ही यह गौरव प्राप्त था । जैसा कि राजाको भी मैदानमें आना पड़ा। परिणाम यह हुआ ऊपर हम प्रमाणोंमे सिद्ध कर चुके हैं। वे राजा कि बालाकीने महाराजका शिष्य बनना स्वीकार किया, आत्म-विद्याके महान ज्ञाता थे। वे सब विदेह, काशी, परन्तु राजाने एक विद्वानका अपमान करना अनुचित मगध, पांचाल, कैकेय आदि पूर्व देशोंके थे। इनमें समझा, अतः उन्होंने बिना ही शिष्य बनाये बालाकी केवल कैकेयको ही ऐतिहासिक लोग पंजाबका देश को आत्म-विद्याका रहस्य बतलाया। इन्हीं अजातशत्रु मानते हैं, परन्तु हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि उनकी के पुत्र महाराज भद्रसेन थे। जैनशाखोंमें इन्हींका यह धारणा गलत है। यही कारण है कि वैदिक नाम अश्वसेन लिखा है जो कि भगवान पार्श्वनाथजी साहित्यमें अंग, वंग, कलिग आदि देशोंकी निदा की के पिता थे। शतपथ ब्राह्मण ५-५-५ में लिखा है कि गई है।

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