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क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है ?
(ले०-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया)
प्रो. हीरालालजी जैन एम० ए० ने, 'जैन इतिहासका कुन्दाचार्यके उपदेशोंके पश्चात उन्हीं के समर्थनमें लिखा गया एक विलुप्त अध्याय' नामक निबन्धमें कुछ ऐसी बातोंको है। इस प्रन्धका कर्ता उस रनमालाके कर्ता शिवकोटिका प्रस्तुत किया है जो आपत्तिजनक हैं। उनमेंसे श्वेताम्बर गुरु भी हो सकता है जो प्राराधनाके कर्ता शिवभूति या प्रागमोंकी दश नियुक्तियोंके कर्ता भद्रबाहु द्वितीय और शिवार्यकी रचना कदापि नहीं हो सकती।" प्राप्तमीमांसाके कर्ता स्वामी समन्तभद्रको एक ही व्यक्ति यहां मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो.मा. बतलानेकी बासपर तो मैं 'अनेकान्त' की गत संयुक्त ने भाजसे कुछ असें पहले 'सिद्धान्त और उनके अध्ययनकिरण नं.१०-११ में सप्रमाण विस्तृत विचार करके का अधिकार' शीर्षक लेख में, जो बादको धवलाकी चतुर्थ यह स्पष्ट कर पाया हूँ कि नियुक्तिकार भद्रबाहु द्वितीय पुस्तकमें भी सम्बद्ध किया गया है, रखकर एड-श्रावकाचारको और भाप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र एक व्यक्ति नहीं स्वामी समन्तभद्रकृत स्वीकार किया है और उसे गृहस्थोंके है-भिन्न भिन्न व्यक्ति है और वे जुदी दो भिन्न परम्पराओं लिये सिद्धान्तग्रन्थों के अध्ययन-विषयक नियंत्रण न करने में (श्वेताम्बर और दिगम्बर-सम्प्रदायाँ) में क्रमश: हुए हैं- प्रधान और पुष्ट प्रमाणके रूपमें प्रस्तुत किया है। यथास्वामी समन्तभद्र जहाँ दूसरी तीसरी शताब्दीके विद्वान् है
____ "श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्सम और वहां नियुक्तिकार भद्रबाहु छठी शताब्दीक विद्वान ।।... और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ स्वामी ममन्तभद्र कृत रत्नकरण्ड
वाज मैं प्रो. सा. की एक दूसरी बातको लेता हूँ, श्रावकाचार है, जिसे वादिराज सूपिने, 'मायसुखावह' जिसमें उन्होंने रत्नकरण्ड-श्रावकाचारको प्राप्तमीमांसाकार और प्रभाचन्द्रने अखिल सागारधर्मको प्रकाशित करने स्वामी समन्तभद्रकी कृति स्वीकार न करके दूसरे ही सम- वाला मर्य' कहा है। इस प्रथमें भावोंके मध्ययनपर कोई स्तमद्रकी कृति बतलाई है और जिन्हें मापने प्राचार्य कुन्द- नियंत्रण नहीं लगाया गया किन्तु इसके विपरीत"""" कुन्दके उपदेशोंका समर्थक तथा रत्नमाला कर्ता शिव
-क्षेत्रस्पर्शन० प्रस्ता. पृ. १२ कोटिका गुरु संभावित किया है। जैसा कि आपके निबन्धकी
किन्तु अब मालूम होता है कि प्रो. सा. ने अपनी निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है:
वह पूर्व मान्यता छोड दी है और इसी लिये रत्नकरण्डको "रत्नकरयाश्रावकाचारको उक्त समन्तभद्र प्रथम
स्वामी समन्तभद्रकीकृति नहीं मान रहे हैं। अस्तु । (स्वामी समन्तभद्र) की ही रचना सिद्ध करनेके लिये जो
प्रो. साहबने अपने निबन्धकी उक्त पंक्तियों में रानकुछ प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं उन सबके होते हुए भी
करण्ड श्रावकाचारको स्वामी समन्तभव-कृत सिद्ध करने मेरा अब यह मत हद हो गया है कि वह उन्हीं ग्रन्थकार
वाले जिन प्रस्तुन प्राोंकी भोर संकेत किया है वे प्रमाण की रचना कदापि नहीं हो सकती जिन्होंने भाप्तमीमांसा है जिन्हें परीक्षा-द्वारा अनेक प्रथाको जाली मिद्ध करने लिखी थी, क्योंकि उसमें दोषका' जो स्वरूप समझाया वाले मध्तार श्रीपं जुगलकिशोरजीने माणिकचन्द-प्रथमाता गया है वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुसार हो ही नहीं में प्रकाशित रत्नकाएर श्रावकाचारकी प्रस्तावमा विस्तारके सकता। मैं समझता है कि रत्नकरराड श्रावकाचार कुन्द साथ प्रस्तुत किया । मैं चाहता था कि उन प्रमाणको १शुन्य गसाजरातजन्मान्नकमयस्मयाः।
" ' यहाँ उदृत करके अपने पाठकोंको यह बतलाऊँ कि वे न रागद्वेपमोहाश्च यस्यामः स प्रत्यते ।।-रत्नकरण्ड०६ *देखो, प्रस्तावना पृ०५ मे १५ तक ।