Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 434
________________ किरण १२] क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है। ३८५ स्त्रन्मतामृतवामानां मर्वथैकान्तवादिनाम् । मीनासादिक भाषा-साहित्य और प्रतिपावन-शैलीका मेख नहीं प्राप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ।। खाता । रत्नकरण्ड-भावकाचारकी भाषा अत्यन्त सरल और -माप्त. का०३से तक स्ट प्रति गदनशैली भी प्रसन्न पर गहरी नहीं है जब यहाँ देखेंगे कि रत्नकरण्डमें प्राप्तका भागमिक रिसे किमासमीमांसादिकृतियोंकी भाषा अत्यन्त गूढ और जो स्वरूप बताया गया है उसे ही समन्तभद्रने भाप्तमीमांसा जटिल धोबेमें अधिकका बोध कराने वाली है-प्रति. की इन कारिकाओं में विभिन्न दानिकों के सामने दार्शनिक पावनशैली गंभीर और सूत्रात्मक है। अतः इन सबका एक ढंगसे अम्पयोगव्यवच्छेदपूर्वक रक्खा है और प्रतिज्ञात भाप्त कर्ता नहीं हो सकता ! यह शंका एक कर्तृकतामें कोई स्वरूपको ही अपूर्व शैलीसे सिद्ध किया है। प्राप्त' के लिये बाधक नहीं है। रस्मकरबह-श्रावकाचार प्रागमिक रष्टिसे सबसे पहिले 'उच्छिन्नदोष' होना भावश्यक और अनिवार्य लिखा गया है और उसके द्वारा सामान्य लोगोंको भी जैनहै, फिर 'सर्वज्ञ' और इसके बाद 'शास्ता'। जो इन तीन धर्मका प्राथमिक ज्ञान कराना लक्ष्य है।भासमीमांसाविवार्शबातीसे विशिष्ट है वही सच्चा प्राप्त है। इसके बिना निक कृतियों है और इसलिये वे दार्शनिक ढंगसे लिखी गई 'प्राप्तता' संभव नहीं है। समन्तभद्र भाप्तमीमांयामें इसी हैं। इनके द्वारा विशिष्ट लोगोंको-जगतके विभिन्न दार्शबातको युक्तिसे सिद्ध करते है। 'दोषावरणयोः' कारिकाके निकों को जैनधर्मके सिद्धान्तोंका रहस्य सममाना लषय है। द्वारा 'उच्छिन्नदोष' 'मूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' के द्वारा दूर नहीं जाइये, अकलंकको ही लीजिये। अकलंक.. 'सर्वज्ञ' और 'स त्वमेवासि निदोषों' तथा 'स्वन्मतामृत' इन ___ जब तत्वार्थसूत्रपर अपना तत्वार्थवार्तिकभाव्य रचते हैं तो दो कारिकाचोंके द्वारा 'शास्ता-अविरोधिवक्ता प्रकट किया __ वहां उनका भाषा-साहित्य कितना सरल और विशद हो है। सबसे बड़े महत्वकी बात तो यह है कि रत्नकरयडमें जाता है, प्रतिपादनशैली न गंभीर है और न गृह है। 'प्राप्तत्व'के प्रयोजक क्रम-विकसित जिन गुणोंका प्रतिपादन- किन्तु वही अकलंक जब लघीयनय, प्रमाणसंग्रह, न्याय क्रम रक्खा है उसे ही प्राप्तमीमांसामें अपनाया और विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय और मष्टशती न दार्शनिक प्रस्फुटित किया है। 'अन्यथा प्राप्तता न भवेतू' और कृतियोंकी रचना करते हैं तो उनकी प्रतिपादन-शैली कितनी 'सर्वेषामाप्तता नास्ति'ये दोनों पद तोप्रायः एक और इस- अधिक सूत्रात्मक, पुरवगाह और गंभीर हो जाती है। लिये जो एक दूसरेका ऐक्य प्रतलानेके लिये खास महत्वके ___ वापयोंका विन्यास कितना गूढ और जटिल होजाता है कि हैऔर जो किसी भी प्रकार उपेषणीय नहीं है। अन्यथा उनके टीकाकार बरबस कह उठते है कि प्रकर्षक गृहपदोंप्राप्तता क्यों नहीं बन सकती? इसका स्पष्ट खुलासा का अर्थ व्यक्त करनेकी हममें सामथ्यं नहीं"। अतः रत्नकरण्श्रावकाचारमें नहीं मिलता और जिसका न जिस प्रकार प्रकलंकदेवका राजवार्तिकमाण्य प्रागमिक रष्टिसे मिलना स्वाभाविक ; क्योंकि रत्नकरण भागमिक और लिखा होनेसे सरल और विशद है और प्रमाणसंग्रहादि विधिपरक रचना , साथमें संचित और विशद गृहस्था- दार्शनिकरष्टिसे लिखे होनेसे जटिल और पुरवगाह है फिर चारकी प्रतिपादक एक कृति है। सुकुमारमति गृहस्योंको भी इन सबका कर्ता एक है और वे अकलंकदेव हैं उसी वे यहां युक्तिजालमें भावद्ध करना (खपेटना) ठीक नहीं प्रकार रत्नकरयर-श्रावकाचार'मागमिक रटिकीयासे लिखा समझते, किन्तु इसका खुलासा मालमीमांसाकी 'स्वम्मता- गया और भासमीमांसा, युस्यनुशासन और स्वयंभूस्तोत्र मृतवाशाना' भावि कारिकायोंमें करते हैं और कहते हैं कि दार्शनिक रष्टिकोबसे। अत: इन सबका को एकही और 'उच्छिमदोषस्वादि' के न होनेसे सदोषतामें पासता नहीं बन स्वामी समन्तभद्र। सकती। अत: यह स्पष्ट है कि रत्नकरबह-श्रावकाचार और वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा भातमीमांसादिकेका एक और स्वामी समन्तभद्र २२-७-४ यहां यह शंका उठ सकती है कि रनकरण्ड-श्रावका- देवस्थानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्त सर्वतः । चारक भाषा-साहित्य और प्रतिपादन-शैलीके साथ भाल- न मानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि ||-अनन्तवीय,

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