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किरण १२
क्या रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्की कृति नहीं है?
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पाठक, देखेंगे कि समन्तभद्र कितने स्पष्ट शब्दों में यहां अन्तक--मरण और उसके साथी अन्म और ज्वर प्राप्त-केवलीके श्राहारादिके प्रभावका और छुधादि सुख-दुःख (रोग) इन तीन दोषों का प्रभाव बतलाया गया है। वेदनाक अभावका प्रतिपादन करते हैं। यहां तक कह 'जन्म-जराजिहासया' (४६)'ज्वर-जरा-मरणोपशान्य' देते हैं कि इनसे प्रारमाका उपकार होना तो दूर रहा, (८) इनमें जन्म, ज्वर और मरण तो पहिले भागये। शरीरका भी कोई उपकार नहीं होता जब उनसे कोई 'जरा' का भी प्रभाव बतबारा गया है। यहां जिहासा' उपकार नहीं, तो उनका ग्रहण क्यों होगा? अर्थात् नहीं और 'उपशान्ति' शब्दोंसे केवली अवस्था पानेपर प्रभाव होगा। 'चुदादिदुःखप्रतिकारत: न स्थिति:' 'इन्द्रियार्थ- ही विवक्षित है, यह स्पष्ट है।। प्रभवाल्पसौख्यतः न स्थितिः' और 'ततो गुणो नास्ति च 'विरजो निजं वपुः' (११३) निर्मोहः(१२०) जिन देहदेहिनोः' ये तीन पद खास ध्यान देने योग्य हैं, जिनके ___ 'गतमदमाय:' (१४) 'वीतरागे 'विवान्तवैरे' (१७) द्वारा जहां प्राप्तमें सुधादि दुःखों (दोषों) और इन्द्रिय-विषय- 'स्नेहो वृथानेति' (३२) भयकामवश्यो' (३५) भूयादवसुखोंका अभाव बतलाया गया है वहां प्रतिकारस्वरूप क्लेशमयोपशान्त्यः' (20) इन पदों द्वारा कहीं शबदन: भोजनादिसे शरीर-शरीरीके उपकारका प्रभाव भी प्रतिपादन __और कहीं अर्थत: कमसे मल, मोह, मद, राग, वैर द्वेष), किया गया है। दूसरी बात यह है कि मोजनादि करना स्नेह, क्लेश और भय इन दोपोंका केवली भगवान में और इन्द्रियविषयसुखोंका अनुभव करना तोमनुष्यका स्वभाव
प्रभाव प्रतिपादन किया है। है, मनुष्य-स्वभावसे रहित केवली भगवानका नहीं, वे
यहाँ यह भी खास स्मरण रखना चाहिये कि ऊपर उस स्वभावसे सर्वथा छूट चुके हैं और परमोरच अलौकिक
दि. परम्परा-मम्मत ही दोषोंका उल्लेख है--श्वे. परअवस्थाको प्राप्त हो चुके हैं। मनुश्य और केवतीको एक
म्परा-मम्मत नहीं। श्वेताम्बरोंके यहां दोषोंमें सुधा, नृषा, प्रकतिका क्यों बतजाया जाता है? स्वयं स्वामी समन्तभद्र
जन्म, ज्वर, जगको नहीं माना है। अत: यह स्पष्ट है कि क्या कहते हैं। देखिये--
रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकारको जो दोषका स्वरूप-धानि
अभिमत है वही प्रासमीमांपाकारको भी अभिमत-उन मानुपी प्रकृतिमभ्यतांतवान् देवतास्वपिच देवता यतः।
का भिन्न अभिप्राय कदापि नहीं है। और इस लिये विचातेन नाथ परमासि देवता श्रेयस जिनवृष प्रसीदनः।।
नन्दके व्याख्यानका भी, जो उन्होंने प्राप्तमी कारिका । -स्वयंभू०७५
और ६ में किया है और जिसको फु. में प्रो०साल्ने प्रमाणरूपमें इससे यह निर्विवाद प्रकट है कि ममन्तभद्र प्राप्तको प्रस्तुत किया है, यही प्राशय लेना चाहिये। यह भी स्मरण क्षधादि-दोष-रहित मानते हैं और जिसकी प्रतज्ञा-- रहना चाहिये कि वहां उनका दृष्टिकोण दार्शनिक भी है। सामाग्य-विधान तो रस्नकरण्डके उक्त पधमें किया है और अतः उसको लेकर उन्होंने दोषका विश्लेषण किया है। युक्तिसे समर्थन स्वयंभू-स्तोत्रके प्रस्तुत पचमें किया है। और दर्शनान्तरों में भी मान्य अज्ञान, राग और द्वेषको यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि 'क्षुदादि' पदमें प्रयुक्त कण्ठोक्त कह कर 'पादि' शब्दद्वारा अन्योंका ग्रहण किया
शिन्दसे शेष तपादिदोषोंका भी ग्रहण किया गया है है। यदि ऐसान होतो उन्हीके श्लोकवार्तिकगत (पृ.५३२) और उन सबका केवलीमें अभाव स्वीकृत है। महत्वकी व्याख्यानसे, जहाँ सबलता शुधादि वेदनाओंका प्रभाष बात तो यह है कि समन्तभद्रने शेप जम्मादि दोपोंको और। मिन्द्ध किया है, विरोध भावेगा, जो विद्यानन्दके लिये जनपलीमें प्रभावको स्वयम्भूस्तोत्रके दूसरे पद्योंम भी किसी प्रकार र नहीं कहा जामकता। बतला दिया है। यहाँ कुछको दिया जाना है।--
समन्तभद्रका भिन्न अभिप्राय बतलानेके लिये जो यह अन्तकः कन्दको नृणां जन्म-ज्वरसम्बा सदा। कहा गया था कि केवलीमें उन्होंने सुख-दुःखकी बेनना स्वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः॥३॥ स्वीकार की है उसका भी उपर्युक्त विवेचनस समाधान हो 'ध्वंसि कृतान्तचक्रम्' (GE)
जाता है, क्योंकि समन्तभदने स्परतः स्वयम्भू-स्तोत्र का