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अनेकान्त
[वर्ष ६
१८के द्वारा सुख-दुःखका केवली में स्वयं अभाव घोषित मैं अन्तःपरीक्षणद्वारा भी प्रकट कर देना चाहता हूँ ताकि किया है और 'शर्म शाश्वतमवाप शंकरः' (1). 'विषय- फिर दोनों के कर्तृत्वके सम्बन्धमें कोई रुदेह या भ्रम न रहे:सौल्यपराङ्मुखोऽभूत' (२) कहकर तो विरुकुल स्पट कर () रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक में शाखके लक्षणाम दिया है कि जिनेन्द्र शाश्वत--सदा कालीन सुख है-- एक स्वाम पद दिया गया है जो बड़े महत्वका है और विषयजन्य अल्पकालिक सुख नहीं। दो सुख एक साथ ह जो निम्न प्रकार है:नहीं सकते क्योंकि व्याप्यवृत्ति सजातीय दो गुण एक साथ ___...."अदृष्टेष्टविरोधकम् । ....... शास्त्र........रत्नक०६ नहीं रहते। और दुःख तो सुतमे निषिद्ध हो जाता है। ऐसी स्वामीसमन्तभद्र शास्त्रके इसी लक्षाको युज्यनुशासन, हालतमें सुखदुःखकी वेदना स्वीकार करने पर केवलीमें ___ आप्तमीमांसा और स्वयंभूस्तोत्रमें देते हैं। यथा'शाश्वत-सुख' कदापि नहीं बन सकता। हमारे इस कथनकी ___ (क) दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते। पुष्टि प्रा. विद्यानन्दके निम्न कथनसे भी हो जाती है:
न्युच्यनु०४६ 'पुदादिवेदनोगतो नाहतोऽनन्तशर्मता'(श्लोकवार्तिक पृ.५६२) (ख) 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाकू। अब मैं यह भी प्रकट करदूँ कि भाप्तमी० कार १३ में
'अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।'-आप्तमी० जो वीतराग मुनिमें सुख-दुःख स्वीकार किया गया है वह (ग) 'दृष्टष्टाविराधतः स्याद्वाद' स्वयभू० १२८ छट्टे आदि गुणस्थानवर्ती वीतराग मुनियों के ही बतलाया है यहां तीनों जगह शास्त्रका वही लक्षण दिया है. जिसे न कि तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग मुनि केव- रत्नकरण्डश्रावकाचारमें कहा है और जिसे यहां तार्किकलियो । कारण कि समन्तभद्रको वीतराग मुनि' शब्दका रूप दिया है। पाठक, देखेंगे कि यहां शब्द और अर्थ प्राय: भर्थ केवली या सरहंत नहीं विवक्षित है यह हम उनके दोनों एक हैं। पूर्वापर कथनों वर्णनों और संदर्भोके आधारपर समम (२) रत्नकरण्डमें ब्रह्मचर्य प्रतिमाका लक्षण करते हुये सकते हैं। वस्तुत: 'बीतरागमुनि' शब्दसे यहाँ समन्तभद्रको कहा गया है कि 'प्रतिगन्धि बीभत्सम् "प्रणम्' वह मुनि विवक्षित है जिसके केशलं चनादि काय- (रस्नक. १५३) और यही स्वयंभूस्तोत्रमें सुपाय जिनकी अंश संभव है। और यह निश्चित है कि वह केवलीके स्तुतिमें कहा है "जीवधुतं शरीरमा बीभरसु पूतिथि ' नहीं होता। वीतरागमुनि' शब्दका प्रयोग केवलीके अलावा (श्ली०३२)। यह दोनों वाक्य स्पष्ट ही एक ग्यक्रिकी खचादि गुणस्थानवतियोंके लिये भी साहित्यमें हुघा भावना को बतलाते हैं। है और यह तो प्रकट ही है कि वर्तमान दि. जैन साधुनों- (३) रत्नकरण्डश्रावका वार, प्राप्तका लक्षण निम्न के लिये भी होता है। स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने वीतराग' जैसा
विखित किया गया है. जो खास ध्यान देने योग्य है:-- ही'वीतमोह' शब्दका प्रयोग केवली-मित्रोंके लिये प्राप्तमी.
प्राप्तेनोच्छिन्नदोपेण सर्वज्ञेनागमेशिना । का.15 में किया है। इससे स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड और भवितव्यं नियोगेन नान्यथा याप्तता भवेत ।। प्राप्तमीमांसाका एक ही अभिप्राय है और इसलिये वे
इस श्लोकको पाठक, प्राप्तमीमांसाकी निम्न कारिका. दोनों एक ही ग्रन्थकारकीकृति है और वे हैं स्वामी समन्तभद्र।
__ भोंके साथ पढ़नेका कष्ट करेंबातमीापाकार ही नकरंडके का है. इस बातको सर्वेषामप्तिता नास्ति कश्चिदेव भवेदगकः।
----- दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषाऽस्त्यतिशायनात् । १ (क) सुविदिदपदत्यमुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो वहिरन्तर्मलक्षयः।। समयो समसुदुक्खो भणिदो सुद्धोवोगो त्ति ॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा।
-प्रवच.१-१४ अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥ (ख) 'सूक्ष्म साम्परायछद्भस्थवीतरागयोश्चतुर्दश'
स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिास्त्राविरोधिवाक्। -तत्वार्थसूत्रह-१० अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न वाध्यते ।।
ही बीतमोऽ शबा है। इससे स्पष्ट है
और इसलिये