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समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
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श्रीवीर-जिन-स्तोत्र का भुवि भासितया वीर त्वं गुणसमुत्थया भासितया ।
भासोडुसमाऽसितया सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभाऽऽसितया ॥१॥ 'हे वीर जिन ! पार उस निर्मलकीर्ति से-ख्याति अथवा दिव्यवाणीसे-जो (श्रात्म-शरीर-गत) गुग मे समुद्भत है पृ-पीपर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए हैं जिस प्रकार कि चन्द्रमा प्रकाशमे नक्षत्र-सभा स्थित उस दीप्ति से शोभता जा f+कुन्द-पुष्पोंकी शोभाके समान सब ओरसे धवल है।'
तव जिन शासनविभवो जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः।
दोषकशाऽसनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभावशासनविभवः॥२॥ 'हे वीर जिन! आपका शासन-मागम्य-आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थोके प्रतिपादन-स्वरूप गौरवकलिकाल में भी जगको प्राप्त है-सर्वोत्कृष्टरूग्से वर्त रहा है-, उसके प्रभावसे गुणोम अनुशासन-प्राप्त शिग्यजनोंका भत्र विनष्ट हुा-संसार परिभ्रमण मदाके लिए छटा है। इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषरूप चाबुकोंका निराकरण करने में ममर्थ हैं-चाबुकी तरह पीडाकारी काम-क्रोधादि दोषोंको अपने पाम फटकने नही देते-और अपने ज्ञानादि तेजसे जिन्होने श्रासन-विभुमोको-लोकके प्रमिद्ध नायको (हरिहरादिकों) को-निस्तेज किया है वे-गाधादेवादि महात्माभी आपके इम शासन-माहात्म्यकी स्तुति करते हैं।'
अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः।
इतरोन स्याद्वादो सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्थद्वादः॥३॥ 'हे मुनिनाथ ! 'स्यात्' शब्द-पुरस्सर कथनको लिये हुए आपका जो स्यावाद है-अनेकान्तात्मक प्रवचन हैवह निर्दोष है; क्योंकि दृष्ट-प्रत्यक्ष-और इष्ट-आगमादिक प्रमाणोंके साथ उसका कोई विरोध नहीं है। दूसरा 'स्यात्' शब्द-पूर्वक कथनसे रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन नहीं; क्यों कि दृष्ट और इष्ट दोनोके विरोधको लिये हुए है-प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं, किन्तु अपने इष्ट-अमिमतको भी बाधा पहुंचाता है और उसे किमी तरह भी सिद्ध करनेमे समर्थ नहीं हो सकता।'
त्वमसि सुरासुरमहितोप्रन्थिक सत्त्वाऽऽशयप्रणामाऽहितः।
लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुज्ज्वलद्धामहितः ॥ ४ ॥ '(हे वीर जिन) श्राप सुरा तथा असुरोंमे पूजित है, किन्तु प्रन्थिकसत्त्वोके-मिथ्यात्वादि-रिग्रहसे युक्त प्राणियोंके -(भक्त) हृदयसे प्राप्त होने वाले प्रणामसे पूजित नही हैं-भले ही वे ऊपरी प्रणामादिमे पूजा करें, वास्तवमै तो सम्यग्दृष्टियोंके ही पार पूजा-पात्र हैं। (किसी किमीके द्वारा पृजित न होने पर भी) श्रार तनो लोक्के प्राणियों के लिए परमाहितरूप है-ग-द्वेषादि-हिसाभावोंसे पूर्णतया रहित होने के कारण किसी के भी अहितकारी नहीं, इतना ही नहीं, किन्तु अपने प्रादर्शसे सभी भविक जनोंके श्रात्म-विकाममें सहायक है-श्रावरए रहित ज्योतिको लिये हुए हैं-केवलज्ञानके धारक है-और उज्ज्वलधामको-मुक्तिस्थानको-प्रास हुए हैं अथवा अनावरण ज्योतियोंसे--वनशान के प्रकाशको लिये हुए मुक्तजीवोंसे-जो स्थान प्रकाशमान है उसको-सिद्धिशिलाको-ग्राम हुए हैं।'