Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 352
________________ फिर 1 भाषण सुन्दरता बहिनोंकी समझमें आने लगी है । हमारे आचरण, जप, तप, दान और पूजा-पाठके पीछे धर्मका जो तत्व है, जिसे हम सम्यक्त्वके नामसे पुकारते हैं, उसको हृदय में बिठा कर हम ज्ञान और चारित्रकी ओर बढ़ सकते हैं। हम जहां भी रहें अपसमें प्रेम और सद्भावनाको जागृत रखें । एक दूसरेके सुख-दुखमें साथी बनें और जहां कहीं कलह या दुर्भावना हमारी हडिमें आवे उसे मिटानेकी हम चेष्टा करें। संघ-भावनाएं ही शक्तिदायिनी होती हैं । संघसे ही शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । सम्भव है, ऐसी परिस्थिति भी ना सकती है जब हमारे पिता, भाई, पति या और कोई हमारी रक्षाके लिए उपस्थित न हों, उस समय हमें अपने बलपर ही आत्मरचा करनी होगी। हमें अपने मान और प्रतिष्ठाके लिये मर मिटना होगा। इसमें लज्जा या शर्मकी कोई बात नहीं कि हम व्यायाम या शस्त्र संचालन द्वारा अपनेको स्वस्थ बनावें और अपनी शक्तिकी वृद्धि करें। बजा और अपमानकी बात तो तब है, जब हम अपनी शारीरिक अथवा मानसिक कमजोरियोंके कारण किसी प्राततायोके अत्याचारका शिकार बन आत्मगौरव और प्रारम प्रतिष्ठा को बैठे । माताओंके आरमबल, प्रभिमान और स्वास्थ्यसे ही हमारे देश के बच्चे तेजस्वी और कर्तव्यनिष्ठ होंगे । शिशुओंका लालन पालन बालक-बालिकाओं की शिक्षा और परिवार का श्राहबादपूर्ण वायुमण्डल तो मुख्य रूपसे हमारे ऊपर ही निर्भर करते हैं। इन कर्त्तव्योंकी समुचित प्रकार पूर्ति कर हम राष्ट्र-निर्माण के दूसरे कार्योंमें भी हाथ बँटा सकती हैं । आत्म-विकास और सुधारकी बातें व्यक्तिगतरूपमें प्राय: कठिन प्रतीत होती हैं, किन्तु यदि उन्हें मिल कर किया जाय तो वे सरबतासे सम्पन्न हो जाती हैं। अपनी सुविधाके अनुसार हम अपने दोसमें ऐसी गोष्ठीका प्रबन्ध कर लें जिसमें सप्ताह, पक्ष या मासमें एक या अधिक बार मिल कर हम आपसमें विचार-विनिमय कर सकें। इससे हमारे व्यक्तिगत तथा सामूहिक विकास में सहायता तो मिलेगी ही हममें संगठनका बल आयेगा । ये गोष्ठियां गांव या नगरके उप-सम्मेलनोंमें समय समय पर परियत की जा सकती है, जिनमें सम्मिलित हो हमारी माताएं और बहिनें अपने स्वाध्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और धार्मिक कृत्यों सम्बन्धमें निश्चय कर सकती है। ३१३ संगीत अथवा दूसरी ललित कलाओं में अपना शान बढ़ा सकती हैं। सबसे बढ़कर हमें यह लाभ होगा कि हम एक दूसरेके सुख-दुख और जीवनकी समस्याओंको समकेंगे और हमारी जो बहिनें दुखकी सताई हुई या उपेक्षिता सी अपने जीवनका भार बहन कर रही हैं उन्हें हम यथासम्भव सहायता पहुँचा सकेंगी। पीड़ितों और असहायोंकी सहायता करनेमें हम तभी समर्थ हो सकती हैं जब हममें सेवा और त्यागकी सच्ची भावना हो । उसके लिये हमें उदार हृदय और कर्मशील बननेकी आवश्यकता है। इसके अति रिक अपने समयका समुचितरूपसे उपयोग करना आनेपर ही हम इस योग्य हो सकेंगी कि स्त्रीके गृहसम्बन्धी जो कर्तव्य हैं उनको पूरा करते हुए भी हम समाज और देशसेवाके लिये समय निकाल सके। मनमें तत्परता और तन में स्फूर्ति आनेपर ही वह कर्तव्य हम निभा सकेंगीं । दूसरे देश या समाजकी स्त्रियोंकी जागृति से भी हमें लाभ उठाना चाहिए। किन्तु कहीं, पीतलको सुवर्ण सम नेकी भूल हम न कर बैठें, हमें सावधान रहना चाहिए । ऊपर मैंने आन्तरिक सुधारकी ओर संकेत किया है। देशमें जो कुछ होता है. समाज में जो सुधार होते हैं, धर्म की जो प्रभावना और रथा होती है उस सबके लिये व्यक्ति को पहले स्वयं योग्य बनना होता है । संसारके सारे ही राष्ट्रोंमें अभूतपूर्व उच्चति हुई है। बड़े से बड़े संघ बने हैं, परिषद बनी हैं, विज्ञानके आविष्कार हुए हैं और मनुष्यने असम्भवको सम्भव कर दिखाया है, किन्तु क्या वह उसति स्थायी है, सर्वया वाहनीय है ? धाज संसारका पतन, मनुष्यका स्वार्थ और रक्तरंजित धराका भयंकर दृश्य हमारी योंके सामने मानव समाजकी सारी उन्नति और भौतिक सफलताको व्यर्थ कर रहे हैं। इसका मूल कारण यही है कि मनुष्यने बाहरके सुधार और बाहरकी शिक्षामें उच्चति की, किन्तु अपने अंतरंगको बिल्कुल धोया रक्खा। मनुष्य के और राष्ट्रके निर्माण में नारीसमाजका ही हाथ प्रमुख रहा है। आजकी परिस्थितिके लिये संसारकी मारी मारी-समाज बहुत हद तक उत्तरदायी है। आंतरिक सुधारकी इस कमी को हमें शीघ्र ही पूरा करना होगा, यदि हम चाहती है कि संसार में सुख और प्रेमका राज्य हो । नवयुगके प्रवाह में मानवता बह रही है उसको अपने तप, संयम और त्यागसे जैन महिला समाज पार लगावे यह मेरी कामना है ।

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