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ग़लती और ग़लतफ़हमी
-[ सम्पादकीय -
[ यह लेख लिखे जाने के बाद व्यवस्थाहक अनेकान्तके पास प्रकाशनार्थ जाकर 'इधर-उधर' होगया था-मथुग तक पहुँच गया था। कोई तीन महीने तक खोजके बाद गन ना. २३ मईको प्राप्त हुआ है। इससे अब प्रकाशित किया जाता है]
अनेकान्तके गत विशेषाङ्ग (कि. ५-६)में जहां खटाई-ममक मिलाया हुमा अथवा यंत्रमे बिच भित्र किया छपाईकी बहुत-सी मोटी मोटी गलतियाँ हुई है वहाँ दूसरे हुमा बनस्पति द्रव्य है वह सब 'प्रासुक' (अविस) होता प्रकार की कुछ ऐसी गलतियों भी हुई हैं जो सुनने-समझने है। और फिर "प्रासुकस्य भक्षणे नो पापः"-प्रामुक्के अथवा लिखनेकी गलतीये सर रखती है। उदाहरण खाने में कोई पाप नहीं. यह कहकर बतलाया गया था कि के तौरपर पृष्ठ २२२ पर 'बड़े अच्छे हैं पण्डितजी' इस तुम्हारी सीह में जो मालूका शाक तरयार है वह यंत्रसे शीर्षकके नीचे एक बालिका-द्वारा भोजनसमयकी जिस किन-भिन्न करके, खटाई-नमक मिक्षाकर और अनिमें पका घटनाका उल्लेख किया गया है वह कुछ अधूरा और सुनाये कर तय्यार किया गया हैन--करचा तो नहीं"तब उस हुए श्लोकावि-विषयक पर्षकी कुछ गलती अथवा राजत- खाने में क्या दोष फहमीको लिये हुए है। भोली बालिका शारदाको तो दो अब मैं यहाँपर इतना और भी बतखा देना चाहता हूँ एक चलतीसी बातें कहकर अपनी श्रद्धाजलि अर्पण कानी कि सचित्त-त्यागी पाँच वर्षे (प्रतिमा) श्रापकके लिये थी. उसे क्या मालूम कि जिस बातको उसने बूढी अम्मासे __ स्वामी समन्तभद्राचार्यने रखकरणाश्रावकाचारके निम्न सुना था उसका प्रतिवाद कितना महत्व रखता है और इस पचमैं बह विधान दिया है कि वह कन्द - मूललिये उसे कितनी सावधानीसे ग्रहण तथा प्रकट करना फल - फूलादिक करचे नहीं खाता, जिसका यह चाहिये लिखते समय उसके सामने नवो यह श्लोक था पर प्राशय है कि वह अनिमें पके हुए अथवा अन्य प्रकार और न उसका मेरे द्वारा कियाहुमा भई-दोनोंकी उडती से प्रासुक हुए कन्द-मूलादिक खा सकता है, और साथ ही सी स्मृति जान पड़ती है, जिसे लेखामें अंकित किया गया यह निष्कर्ष भी निकलता है कि पाँच दर्जेसे पहले चार है। और उससे सहारनपुरकी जैन-जमतामें एक प्रकारकी दो (प्रतिमाओं) बाले श्रावक कन्दमूलानिकको कामषवा मालूमों
अप्रासुक (सचित) स्वमें भी खा सकते हैं:चल पी।प्रतः यहाँपर इस विषयमें कुछ स्पष्टीकरण मूल-फल-शाक-शाम्बा-करीर-कन्द-प्रसून-बीजानि । कर देना उचित जान पड़ता है, जिससे गलतफहमी दूर हो नाऽऽमानि योऽत्ति सोऽयं मचित्तविरतो क्यामूर्तिः॥ सकेकुमारी शारदाने जिस लोकको सुनाने की बात कही भालूकी गणना कन्दोंमें होमेसे, उपरके प्राचार्यपवरहैबह गोम्मटमारादि प्रन्योंकी टीकामों में पाई जानेवाली वाक्यपरसे पह साफ जाना जाता है कि जैनधर्ममें मालूके निम्न प्राचीन गाथा है:
भषयाऽमचय-विषयमें एकान्त नहीं किन्तु अनेकान्त - सुकं पक्कं तत्तं अंबिल-लवणेण मिस्सियं दब्वं । प्रथम चार बजोंके श्रावकों के लिये वह नियमित रूपसे जं जंतेण च्छिणं तं सव्वं फासुयं भणियं ॥ त्याज्य न होने के कारण कधी पक्षी आदि सभी अवस्था में
इस चायाको सुनाकर बहभाशय बसखाया गया था भयरन्द्रिय संयमको लेकर स्वेच्छासे त्यागे जानेकी किलो सुखाया हुमा, अमिमें पकाया दुपा, सपाया दुचा, बात दूसरी है, उस रष्टिसे अच्छेसे अच्छे पदार्थका साना