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अनेकान्य
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[वर्ष ६
तत् सातिशय प्रहन्त भगवान् अपनी सर्वाजनिकल रही जैसे कि पृथ्वी विना इच्छाके करोड़ों मन अब पैदा कर दिव्य-भाषाद्वारा उपयोगी थोड़े शब्दोका जामा पहिनाकर जीवोंको मुखित करती। मेघजल सभी वनस्पति, पशुबहुतला प्रमेय कह डालते हैं। पुनः गणवरदेव अधिक पक्षियोको तृप्त करता है। वायु इच्छा बिना सबको प्रागदान शन्दोंकी चासनी चढ़ा कर भी थोडाला ही प्रमेय प्रन्थगुम्फित करती है। मैं पञ्चस्तोत्रोंका प्रतिदिन पाठ करता हूँ कभीर
कर पाते हैं तो भी उनके एक एक अक्षरपर अनन्त प्रमेय अन्यमनस्क होजानेपर विना इकाके और मनोयोगको लगाये . लदो हुना है। विशजन! द्वादशांगवामय महास्कबधगया विनाही बीमों लोकोंको योनीबोल जाता है। वे ठीक मी
के समान अतीव विशाल है। यो अरहन्तदेव, गणधर, प्रति- बोले गये। संदर्भ ठीक बनता चला गया है। अभिगरधर, प्राचार्यपरिपाटी अनुसार प्राम्नाय प्राप्त हो रहे लावा अन्यत्र लग रही है मन कहींका कहीं दौड़ रहा है। भागमोंको प्रमाणता है। "म' किचिदम्बरं प्राहुराता हि- इच्छा और मनोयोगके बिना केवल पुरुषार्थसे ही खाये हुये भुतदेवयोः" "सुद केवलं च गाणं, दोगिण विसरिताणि होति प्रमके शरीरमें अनेक विश्लेषण हो रहे हैं। रस, साधर बोहादो" भागमों में बहुभाग तो द्रष्य, गुण, पर्यायोंका ही आदि बन रहे है। मन कहीं लग रहा है। इच्छा अन्यत्र वर्णन है। परम्परासे सर्वशोक होनेसे वह सभी प्रमाण है। नासी। इन कार्यों में छा और मनको पूछता भी प्रापेक्षिक धर्माका सम्यग्ज्ञान भी प्रमाण है। भगवान उन कौन है? काली मिर्च प्रखिोंके पास भेज दी जाती है उन धमौका भी उपदेश देते क्या किसी किसी चीलको बादामकी डिलेवरी दिमागको होजाती है। मोती हृदयसे अन्य प्रकारसे दुखा? जाना जाता है और शब्दों द्वारा सख्यभाव करता है। वनपशा, गालमा जाकर जुखामसे दूसरे प्रकार कथन किया जाता है। घटान्त दिये जाते हैं भिड़ जाते है। खूबकला दुखारसे टक्कर लेने लग जाती शरीरचेष्टायें की जाती है। यो जानने-जनानेकी प्रकार-प्रक्रिया है।रात्रिको सोते समय अच्छा पाचन होता है, जब कि न्यारी न्यारी तीर्थकर प्रकृतिका उदय हो जाने पर किया शरीर प्रकृति तुमको निद्रामा क्लोरोफार्म ९षा देती है। गया त्रिजगारण्य श्रीअन्तिदेवका यह कार्य सर्वोत्कृष्ट है, तुम्हारेशान इच्छायें न जाने कहाँ छिपे पड़े हैं। रूखी असंख्य जीवोंको मोक्षमार्गमें लगादेता है, प्राप्तपरीक्षामें प्रकृतिके इन कारककारणोंको विचारे सायककारणोंकी पुछ किया है कि-"अमिमतफलसिद्धरम्युपायः सुबोधः किचित् भी माकांक्षा (परवाद)नहीं है। आगते हुये भी प्रभवति च शालात्तस्य चोत्पत्तिासात् । इति मबति इच्छासे कार्य होनेका नियम भी नहीं है। तीन मनीषा होते पूज्यस्तत्प्रसादाबबुदैर्नहितमुपकारं साधवो विस्मरन्ति" हुये भी कार्य नहीं हो रहे। मारवाड़ी किसान वृष्टिको चाहते भीजिनेन्द्रपूजाकी यह सबसे बढ़िया उपपत्ति है।
है। निःसंतान स्त्रियां पुत्रोंको चाहती है। दखि धनका पांचवर्षकी छोटी लड़की अपनी बीस वर्षकी बड़ी बहिनसे तिखाया बैठा है।अनेक युवा भाजीविका खोजते फिरते है,
आग्रह करती है कि जीजी बगल में क्या प्रानन्द वह स्वराज्यवादी स्वराज्यवादी स्वतंत्रताको मांग रहे है, इच्छा कुछ थोड़ा सा कहकर टाल देती है। वास्तविक रहस्यका का कार्य होजानेके साथ कोई अन्य व्यतिरेक नहीं है। मैं पता छोटी बहिनको सभी लगता है जबकि उसका विवाह, तो कहता हूँ कि एक लाख कायोंमें REEEE कार्य बिमा गौना होजाता है। यों वस्तुचोंके सक्ष्म अंशोका विशवज्ञान इच्छाके होते है। एक कार्य इच्छासे होता । कारण केवलशानी हो जाने पर ही पात होगा। प्रवेशिकाका छात्र तो मेघवर्षण, समुद्रघोष, बाबुसंबार, मङगेल्पादन, पुष्ष. शाखीय कक्षाके विषयको अपरसे कुछ टटोल लेता है बस। फलोदय प्रादिको बिना इच्छाके उपनावेही। चेतनश्रीहन्त भगवानके प्रतिपाच शानमी कम नहीं। कारणोंमें भी इच्छाकी कदर नहीं। मूलमें भांग पीली या पोपकारी केवलशानी बिना रच्छाके पुरुषार्थद्वारा यहाँ वहाँ स्वादमें बनेकी रोटीखाली, फिर काही कि नया नहोय, के शब्दोंसे मदकर भापको अमृतोपम उपदेश दे रहे। पैदमें दर्द नहीं होग, तोपा करें। मया या पीड़ा भामाश्य स्वादकेवलशाने सर्व तत्वप्रकाशने ।
रोगी। बोना, दांत टना, प्रालीकम बोलना, मेवा सावायचासनी.
सफेद बाल होना कौन पाता। फिर भी परोसे हो
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