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थे. उन्होंने अपना निश्चय नहीं बदला और इस लिये वे जरा भी श्रमबोध नहीं होता था-मानो कोई अपविष्ट नियत समयपर विपुलाचलपर पहुँचकर उस अपूर्व दृश्यको (uplift) अपनेको ऊँचे खींचे जा रही हो। देखने में समर्थ हुए जो बारबार देखनेको नहीं मिलता। विपुलाचबके उपर पहुंचते ही सबसे पहले वीरशासन
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा. जुखाईकी थी और राजगृहमें के मंडेका अभिवादन किया गया। मंडाभिवादनकी रस्मको कोई १५ दिन पहलेसे वर्षाका प्रारंभ हो गया था। पं.कैलाशचंद्रजी शास्त्री बनारसने, 'ऊँचा झंडा जिन५ अगस्तकी सुबहको जब मैं मंत्रीजी सहित राजगृह पहुँचा शासनका परमअहिंसा दिग्दर्शनका' इस गायनके साथ तो खूब वर्षा हो रही थी, वहांकी रेल्वे भी छलनीकी तरह अदा किया, जिसे जैनबाखाविश्राम पाराकी छात्राोंने मधुरटपकती थी। और चारों तरफ पानी ही पानी भरा हुभा
ध्वनिसे गाया था। था। ५ जुलाईको पर्वतकी यात्रा करते समय वर्षा भागई
इसी समय पर्वतपर सूर्य का उदय हो रहा था और
सूयं उस समय ऐसा देदीप्यमान तथा पूर्व तेजबान प्रतीत और सारी यात्रा खूब पानी बरसतेमें ही अनन्दके साथ की
होता था जैसाकि इससे पहले कभी देखने में नहीं पाया, गई और उससे कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। ६ ता. को
मानों वीरशासनका अभिनन्दन करनेके लिये उसका भी बादलोंका खूप प्रकोर था। रात्रिके समय तो वे इतने घिने घिर कर आगये थे और बिजलीकी भारी चमकके साथ ऐसी अंग अंग प्रफुल्लित हो रहा हो। भयंकर गर्जना करते थे कि लोगोंको आशंका हो गई थी
श्रावणकृष्ण-प्रतिपदाको सूर्योदयके समय ही वीरभग
वानकी प्रथम देशना हुई थी और उनका धर्मतीर्थ प्रवर्तित कि कहीं ये कोई विघ्न बाधा तो उपस्थित नहीं करेंगे।
हुमा था। अत: इस सूर्योदयके समय सबसे पहले महावीरउसी समय यह प्रश्न होनेपर कि यदि कल प्रात:काल भी
सन्देशको सुननेकी जनताकी इच्छा हुई, तदनुसार 'यही है इसी प्रकार वर्षा रही तो पर्वतपरके प्रोग्रामके विषयमें क्या
महावीर सन्देश. विपुलाचलपर दिया गया जो प्रमुखरहेगा ? उपस्थित् जनताने बड़े उत्साह के साथ कहा कि
धर्म-उपदेश' इत्यादि रूपसे वह 'महावीर-सन्देश' सुनाया चाहे जैसी वर्षा क्यों न हो पर्वतपरका प्रोग्राम समय पर
गया जिसमें महावीर जिनेन्द्रकी देशनाका सार संगृहीत है ही पूरा किया जायगा। इधर कार्यका दृढ़ संकल्प और उधर
और जिसे जनताने बडे मादरके साथ सुना तथा सुनकर वर्षाके दूर होने की स्थिर हार्दिक भ वना, दोनॉने मिन्न कर
हृदयंगम किया। एसा माश्चर्यजनक घटना घटी कि बदोंने प्रात:काल होनसे इसके बाद वीरप्रभुके मन्दिर में पूजनादिकी योजना की पूर्व ही अपनी भयंकरता छोड कर विदा बेनी शुरू करदी गई। अभिषेकके बाद वीरसंबामन्दिस प्रकाशित वह 'जिन
और वे पर्वतारोहणके प्रोग्रामके समय एक दम छिन्न भिन्न दशन स्तोत्र पढ़ा गया जिसका प्रारंभ 'आज जन्म मम हो गये ! यह अद्भुत दृश्य देखकर उपस्थित विद्वन्मण्डली सफल हुआ प्रभु! अक्षय-अतुलित-निधि-दातार' इन और इतर जनताकेहदयमें उत्साहकी भारी लहर दौड गई शब्दोंसे होता है। इसे पढ़ते समय पढने-सुनने वालोंका और वह द्विगणित उत्साहके साथ गाजे-बाजे समेत श्रीवोब- हदय भक्तिसे उमडा पडता था। बादको पं.कैलाशकंदजी प्रभु और वीरशासनका जयजयकार करतो हुई विपुलाचनकी प्रादिने ऐसी सुरीली आवाजमें मधुरध्वनि और भक्तिभावके भोर बढ़ चली। जलूपमें बोगोंका हृदय भानन्दसे उछल साय पूजा पढ़ी कि सुनने वालोंका हृदय पूजाकी ओर रहा था और वे समवसरणमें जाते समयके रश्यका-सा प्राकर्षित होगया और वे कहने लगे कि पूजा पढी जाय तो अनुभव कर रहे थे । विद्वानोंके मुखसे जो स्तुति-स्तोत्र उस इसी तरह पढ़ी जाय जो हृदयमें वास्तविक मानन्दका समय निकल रहे थे वे उनके हृदय मन्त-स्तलसे निकले संचार करती है। अन्तमें एक महत्वकी सामूहिक प्रार्थना की हुए जान पड़ते थे और इसीसे चारों ओर मानन्द बखेर गई जिसका प्रारंभ हमें है स्वामी उस बल की दरकार' रहे थे। अनेक विद्वान वीरशासनकी अहिंसादि-विषयक रंग- इन शब्दोंस होता है। विरंगी ध्वजाएँ तथा कपडेपर अंकित शिक्षाद मोटोज पूजाकी समाप्तिके अनन्तर सब लोग खुशी खुशी उस अपने हाथों में थामे हुए थे। मेरे हाथमें वीरशासनका वह स्थानपर गये जहाँ वीरभगवानका समवसरण लगा था, जो धवलध्वज (मंडा) था जो अन्तको विपुलाचन-स्थित पीर- विपुलाचलपर समवसरहाके योग्य सबसे विशाल क्षेत्र है प्रभुफे मन्दिापर फहराया गया । पर्वतपर चढ़ते समय
(शेष अंश टाइटिलके थे पृष्टपर)