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अनेकान्त
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मक्खन, बड़े आदि स्वादिष्ट नहीं लगते हैं। अधिक व्याख्यान भयभाषाकी रचना कर देते हैं। यामी तुम्हारे लिये प्रमेयो
की जरूरत नहीं है। मनीषियोंके लिये संकेतमात्र पर्याप्त है। पर प्रयोजनसाधक, उपयोगी शब्दों को लपेट लपेटकर . "यद्विद्या दर्पणापते" "दर्पणतल इव सकला प्रति द्वादशाङ्ग बनाते हैं गणधर रच देते है। केवली स्वयं फलति पदार्थमालिका यम" यो केवलशानके लिये दर्पण वाकार्यशान नहीं कर पाते हैं। अन्यथा केवलशानीके का शन्त बड़ा अच्छा है जैसे दर्पण किसी पंडित, मूर्ख. श्रुतज्ञान बन बैठेगा। जो कि प्राय श्रागमभद्धालुओंको माक्षण, क्षत्रिय, शत्रु, मित्र, शुद्ध, अशुद्धका विचार किये बुरा लगेगा। बिना ही पदार्थका निर्विकल्प (तिभास कर देता है तद्वत् यह दृष्टान्त स्यात् श्रापको यहां अच्छा नहीं जंचेगा केवलशान भी चिन्तना-राहत परमायौँको विशद जानता कि अभव्यमुनियोंके उपदेशसे हजारों जीव आत्मोपलब्धि रहता है।
कर मोक्ष पा गये परन्तु वे श्रात्मशानशून्य दी बने रहे संसार अच्छा थोड़ा और भी सुनिये किसी किसी छात्रके लिये में रुलते फिरे। अच्छा एक ऐसा भी व्यधिकरण दृष्टान्न कई बार कहना पड़ता है। चार भनुष्योंके पास चार चार सही-"काका: सन्तश्च तनयं स्वं परं न विजानते।" कौश्रा करके १६ रूपये हैं केवली महाराज विकल्प किये बिना और सज्जन अपने और परके लड़कों को समान गिनते हैं। सब रुपयोंको जान जायेंगे। हां कोई चा पूछेगा तो लल्लू पक्षपात नहीं करते हैं । परभृत् यानी कोयल के अंडेको को समझाने के लिये चारका पहाड़ा पड़ कर चार एक चार, काकी (कौाकी स्त्री) सेवती है पालती है। ऐमा कवि चार दूनी माठ, चार तीन वारह, चार चौक सोलह अथवा सम्प्रदाय है यहाँ कौश्राको सजनका साथी बना दिया गया चारको चारसे तीन बार जोड़ कर वचन बोल देंगे । यह है। पुनः प्रकृतपर लौट आये। शब्दकी रचना सब भुतशान है, केवलशान नहीं। "ज्यों गोम्मटसारंका अध्ययन करने वाले जानते हैं कि शिशु नाचत आपन रावत" अनुसार केवल शानमें जोड़, विचार करना मनका कार्य है। भगवान् पाँचो हन्द्रिय और बाकी, गुणा, भाग, पैराशिक, पंचराशिक, लघुत्तम, मह- छठे मनके द्वारा होने वाले शानोसे रहित है। "इन्द्रियसम, दशमलव, वर्ग, वगंभूल, पन, घनमूल, व्याज नहीं णाणेणीणम्मि" भगवान्के भावमन माना भी नहीं है। है।क्योंकि ये सब विकल्प है। विचार है श्रुतज्ञानके जनक केवल "अंगोवंगुदयादो दन्बमण जिणिदचंदम्हि । मण-. है। भगवानके पास अणुमात्र भूत नहीं है। हाँ शिष्योंकों वग्गणखंचायं पागमादोदुमणजोगो।" यो मनोवर्गणाके समझानेके लिये अविनाभावी उपायोंसे उपदेश दे देते हैं। श्रागमनका लक्ष्यकर उपचारसे मनोयोग कह दिया है।
चमचा, खीर, दाल, शाक, सर्वत्र, डोलता परन्तु भगवानको द्रव्यमनका काम नहीं पड़ता है। यों तो केवल-: उन व्यंजनोंके रससे जलकमलपत्रवत् अलग रहता है। ज्ञानी भगवान् के सर्शन, रसना, प्राण, आँखें, कान ये "नामस्थापनाद्रव्यमावतस्तन्न्यास:" "नयरधिगमः नैगम बाहरी इन्द्रियां भी बहुत बढ़िया है। चक्रवर्तीकी प्रास्त्रे यदि संग्रहव्यवहार ऋजुसूत्रशम्दसमभिरूढेवंभूता. नया, ४७२६३ बड़े योजनकी दूस्थित वस्तुको देखती हैं तो निर्देशस्वामित्व-प्रादि सब प्रनिहामंडप प्रोताओंके लिये है, परमौंदारक शरीरकी चक्षुर्य सैतालीस लाख बोजन दूरकेवलज्ञानी स्थापना भादिका रत्तीभर भी उपयोग नहीं करते बी पदार्यको देख सकती थीं किन्तु वहाँ द्रव्यमन, द्रव्येहै। विक्टोरिया चित्र या मूर्तिको ईग्लेण्डकी सम्राशी समझ न्द्रियाँ, सब अकार्यकारी हैं। लेना ये स्थापनानिक्षेप बालोंके विचार है निविचार प्रत्यक्ष संक्षिप्त मार्गणा बारहवें गुणस्थान तक। "सिक्खा में ऐसे प्रतिभात नहीं होते हैं। उनको ये झाल चाहिये भी फिरियुबदेसालाचग्गाही मणोवलंवेण, जो जीवो सो सराणी" नहीं। कमेटी, सभा, परिषद, विद्यालय, मन्दिर, पालामैन्ट- . मीमाद जो पुब्वं कमजमकजं च तथमिदरं च सिक्खदि कौन्सिल, यूनीवर्सिटी ये सब अशोके विचारस्थल हैं. णामेणेदि य समणो श्रमणो य विवरीदो साथी सरियप्प
अविकल्पकशानियोंको इनमें हो रही चिन्तनायें श्रास्मसात् हुदी खीयकसायो सिहोदि शियमेण" . नहीं करनी पड़ती है। मात्र तत्वजिशासुमोके लिये वे अनु- यो वेशीपन यानी मीमांसा करना, विचार करना ये सब चर्चाएँ