Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 418
________________ किरण १०-११] जयपुर में एक महीना ३७५ - २० वे करकवके बाद वे चार गाथाएं निम्न रूपमें पाहे तवा सत्वपरवी सेठी और भाई मानभद्रजी तथा पाटोदीजाती है: मंदिरके शासभंडारके मैनेजर सा. का भी मुझे पूरा पूरा अइ वि विरुद्धं एयं णियाणबंधं जिणेद उवसमए। सहयोग मिला है। इन सबके सौजन्यपूर्ण व्यवहार एवं तहं वि तहय चलणं कित्तणं जयउ पउमकित्तिस्स ।। सहयोगके लिये मैं भाभारी। भाशा भविष्य में भी रइयं पासपुगणं भमियापुहमी जिणालया दिट्ठा। इसी तरहका सहयोग वीरसेषामन्दिरको प्रास होता रहेगा। एहिय जीविय मरणेहरिस-विसामोण परमस्स ।। राजपूतानेमें जैनियोंके पुरातत्वकी विपुल सामग्री यत्रमावयकुलम्मि जम्मो जिणचरणाराहणा कइत्तं च। तत्र बिखरी हुई पड़ी है। जैन समाजका मुख्य कर्तव्य है एयाइ तिरिण जिणवर भविभवि होउ पउमस्स ॥ कि वह इस देशके शास्त्रभंडारों, मूर्तिलेखों, प्राचीन स्थानों गवसय- उ वा पुइए कत्तिय मासे अमावसी दिवसे। और जैन वीरोंकी गौरवगाथाघोंका शीघ्र ही एक अच्छा लिहियं पामपुराणं कईणा इह परमणामेण ॥ संकलन एवं संग्रह तय्यार करके प्रकाशित करे। यह कार्य वीरसेवामंदिरके इस पुनीत कार्यमें मित्रवर .चैनसुख- अत्यंत आवश्यक है, जो जैन इतिवृत्तके लिखने में बहुत दासजी न्यायतीर्थ, सेठ रामचंद्रजी खिंदुका मंत्री महावीर कुछ सहायक होगा। प्राशा समाजके उदार श्रीमान तीर्थक्षेत्र कमेटी, तथा कमेटीके मेम्बरान् बा० सूर्यनारायण अपने पूर्वजोंकी कीर्तिके संरक्षण और भावी संतानके पथजी वकील, बा. फूलचन्दजी सोनी, श्रीर वा० फूलचन्दजी प्रदर्शनका ध्यान रखते हुए इस ओर अवश्य ध्यान देनेकी बाकलीवालके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है। पं. का करेंगे। श्री प्रकाशजी न्यायतीर्थ और पं. भवरखानजी न्यायतीर्थ, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०२०मई ४४ वीरशासन-जयन्तीपर मुनि श्रीकृष्णचन्द्रजीकाअभिमत . श्रीजैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूलाके माननीय अधिष्ठाता जैनदर्शनाचार्य मुनि श्रीकृष्णचन्द्रजीने राजगृहमें होनेवाले वीरशासनजयन्ती-महोत्सबके निमंत्रणको पाकर उसमें सम्मिलित होनेकी हार्दिक इच्छा व्यक्त करते हुए, अपना जो अभिमत २२ जून ११४४ पत्रमें व्यक्त किया है वह अनेकान्त-पाठकों जानने योग्य है। माप लिखते हैं:"परममाननीय पं.जुगल किशोरजी साहेब ! वन्दे वीरम् । भापका मामन्त्रण-पत्र मिला। मेरी बबी ही हार्दिक इच्छा रही है कि मैं ऐसे शुमावसर पर राजगृह पाँच। जैसे कि भनेकाम्तमें देखने में पाया था कि वीरशासन-जयन्तीके बारेमें दिगम्बर-वेताम्बरमतमेव है-वस्तुत: वह जयन्ती बारेमें नहीं हो सकता, तिथियोंके विषयमें ही कहा जा सकताहै। ऐसे मतभेदोंके लिये मेरे उदयमें स्थान भी नहीं है--मैं तो उस भावनाको महत्व देता हूं जिससे प्रेरित होकर मापने इस पवित्र पर्वका समारम्भ किया है। वह भावना अवश्य ही प्रशस्थ है। मैं समझता है जबकि 'साय-साहसावी' उत्सव दीपावलीके अवसर पर मनानेका कमेटीने निर्णय किया है तो यह मतभेद भी नही रहवा । अब तो उस उत्सवका एकमात्र लक्ष्य वीरप्रभुके शासनकी जयन्ती मनाने का रह जाता है। ऐसी स्थितिमें दीपावलीकेशुभावसर पर यह उत्सव और भी अधिक सफल होगा ऐसा मुमे दीलवा ........

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