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अनेकान्त
[वर्ष ६
महाराजका मन साधु-दर्शनकी ओर फिर गया। एक क्षणमें कछका कुछ कर सकता है, और पाप ही आप कहने लगे-'दमदत्त और धर्मरूचि दुनियामें रह कर तुझसे बचना भी तो आसान नहीं महा-मुनि ! एक महीनेकी उपवास-अवधिको पूर्ण कर है हर किसीको ? तब ?' पाहार-नीरस आहार के लिए बनसे नगरमें पधारे पाके भयने महाराजके मुँहको म्लान कर दिया थे। सौभाग्य कि मुझे पुण्य-प्राप्त करनेका मौका मिल वे चिन्तितसे, दु:खितसे उस विलास-भवनमें चहल गया ! क्या वह तुम्हारी निन्दाके पात्र थे? जिनका कदमी करने लगे जहाँ कुछ समय पहले आनन्दकी कि जीवन ही आत्म-हित और परोपकारमय होता हँसी हँस रहे थे! है! बोलो तो? सुनूं तो, कहना क्या चाहती हो । क्षण-भंगुर-विश्व !!! इस बारेमें "
अनायास महाराजके मुँहसे निकला-'पाप __पर, सतोके पास कहनेको शेष था क्या ? वह बुरा है!' बेचारी पापिनी स्वयं ही नरक-यातना भोग रही थी। सतीने घावोंकी पीड़ासे कराहते हुए कहा-'नहीं रूपका अभिमान, वह दर्प, राजसी तेज कुछ बाकी करना चाहिए इस लिए कि उससे दुःख मिलता है !" नहीं था! वह मर जो चुकी थी-अपनी मान्यताके मुताविक!
रात-दिन अन्तःपुरमें पड़े रहने वाले महाराज वह निरुत्तर !
सुरत जब विलास-भवनसे निकले, तो राज-पाटकी महाराज कुछ देर क्रुद्ध-दृष्टिसे देखते रहे उसकी ओर आँख उठा कर देखा तक नहीं, चल दिए आत्मओर ! फिर सहसा उनकी मुखाकृति सौम्य होती गई! हितकी कामना लेकर वैराग्यके पथ पर !
सोचने लगे-'पाप ! बड़ा शक्तिशाली है-तू! सब देखते रह गए-अवाक !
-:-- अभ्यर्थना -.".
नाथ, फिर सञ्चा रूप दिखाओ ! दुराचार बढ़ता जाता है,
दम्भ-द्वेषका नहीं ठिकाना , सदाचार सड़ता जाता है!
स्नेह शील हो उठा पुगना । पुण्य कहीं भी नजर न श्रीता;
परमारथ अब नज़र न पाता, पाप नित्य दृढ़ता पाता है !
स्वारथमय हो गया नमाना! भार बढ़ रहा मातृ-भूमिपर, भाकर इसे मिटाश्री ! | न्याय विकल होता-रोना है-उसको धैर्य बँधाश्रो ! चारों ओर क्रान्तिकी ज्वाला ,
जगको हुई धर्मसे ग्लानि , विश्व-शान्तिका हुभा दिवाला।
भूले हैं सब कथा पुरानी । सुधा-सोमरस नहीं यहाँ श्रब
रक्त मसी है खड्ग लेखनीहै केवल साकी श्री' हाला!
लिम्वी जारही क्रान्ति-कहानी! जहाँ तहाँ मादक मधुशाला-पीनो और शिलानो! | भूल-प्रान्तियों मिटा, शान्तिका श्राकर पाठ पढ़ाओ!
-[श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुहित'