________________
३६२
अनेकान्त
[वर्ष ६
संभव है कि एक देशमें जो बनस्पति अनन्तकाय हो दूसरे पद-विभाजनके अनुसार कन्द-मल खाने में कोई दोष भी देशमें वह अनन्तकाय न हो, अथवा उसका एक भेद नहीं समझाते, परन्तु उनमें बहुतसे ऐसे भी हैं जो घर पर अनन्तकाय हो और दूसरा अनन्तकाय न हो। इन सब तो खुशीसे कन्द-मल खाते हैं लेकिन बाहर जाने पर कन्दबातोंकी विद्वानोंको अच्छी जाँच-पड़ताल (कान-बीन, करनी मलके स्यागका प्रदर्शन करके अपनी कुछ शान बनाना चाहते चाहिये और जांचके द्वारा जैनागमका स्पष्ट व्यवहार लोगों है, यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं। दूसरे शब्दों में इसे यों कहना को बतलाना चाहिये।"
चाहिये कि वे रूढि-मक्तोंके सामने सीधा खा होने में इसके सिवाय, मागमकी कसौटीके अनुसार उक्तलेखमें
असमर्थ होते हैं। और यह एक प्रकारका मानसिक दौबल्य दो एक कन्द-मूलोंकी सरसरी जाँच भी दी थी और विद्वानों
है। जो विद्वानोंको शोभा नहीं देता। उनके इस मानसिक को विशेष जाँचके लिये प्रेरित भी किया था।
दौर्बल्वके कारण ही समाज में कितनी ही ऐसी रूढियों इस प्रकार की शास्त्रीय चर्चाओंसे प्रभावित होकर ग्या
पनप रही हैं जिनके लिये शास्त्रका जरा भी प्राधार प्राप्त रहवीं प्रतिमा-धारक उत्कृष्ठ श्रावक ऐखक पन्नालालजीने
नहीं है और जो.कितने ही सबूमाँका स्थान रोके हुए हैं !! अपने पिछले जीवन में प्रतिपक्व प्रातुक भालूका खाना
विद्वानोंको शास्त्रीय-विषयों में तो जरा भी उपेक्षासे काम शुरू कर दिया था, जिसकी पत्रों में कुछ चर्चा भी चली थी।
नहीं लेना चाहिये। निर्भीक होकर शास्त्रकी बातोंको जनता जान पड़ता है ऐलकजीको जब यह मालूम हुमा होगा
के सामने रखना उनका खास कर्तव्य है। किसी भी कि यह कन्द-मूल-विषयक स्यागभाव जिस श्रद्धाको लेकर
लौकिक स्वार्थके वश होकर इस कर्तब्यसे डिगना नहीं पल रहा है वह जैन भागमके अनुकूल नहीं है और भागम
चाहिये और न सत्य पर पर्दा ही डालना चाहिये। जनता में यह भी लिखा है कि किसीके गलत बतलाने समझाने
की हाँ हाँ मिलाना अथवा मुँहदेखी बात कहना उनका और गलत समझ लेनेके कारण यदि किसी शाखीय विषय
काम नहीं है। उन्हें तो भोली एवं रूढि ग्रसित प्रज्ञ-जनता में अन्यथा श्रद्धा चल रही हो जसका शाससे मसी प्रकार
का पथ-प्रदर्शक होना चाहिये । यही उनके ज्ञानका स्पष्टीकरण हो जाने पर भी यदि कोई उसे नहीं छोड़ता है तो वह उसी वक्त मिथ्यारष्टि है*. तभी उन्होंने अपने
सदुपयोग है।
जो लोग रूढि-मक्तिके वश होकर रूढियोंको धर्मक पूर्वके स्वागभावमें सुधार करके उसे भागमके अनुकूल किया होगा।
प्रासन पर विठलाए हुप है, रूदियों के मुकाबले में शासकी उक्त शाखीय-चके लिखे जानेसे कई वर्ष पहले, बात सुनना नहीं चाहते. शाबाशाको ठुकराने अथवा उसकी
अवहेलना करते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है और उनकी निवासी जब मेरी दलीलोंसे कायल हो गये और उन्हें ऐसी स्थिति निःसन्देह बहुत ही दयनीय है। उनको समवन्द-मूल-विषयमें अपनी पूर्व श्रद्धाको स्थिर रखना मागम माना चाहिये कि भागममें सम्यग्ज्ञानके बिना चारित्रको के प्रतिकूल ऊँचा तो उन्होंने देवबन्दमें मेरी रसोईमें ही मिष्याचारित्र और संसार-परिभ्रमणका कारण बतलाया है। प्रासुक भालूका भोजन करके कन्द-मूलके त्याग-विषयमें अत: उनका प्राचार मात्र बाँका अनुधावन न होकर अपने नियमका सुधार किया था।
विवेककी कसौटी पर कसा हुभा होना चाहिये, और इसके जैनममाजमें सैंकों बड़े बड़े विद्वान् पंडित ऐसे हैं जो लिये उन्हें अपने हृदयको सदा ही शास्त्रीय चर्चामोंके अनेक प्रकारसे कन्द-मल खाते हैं--शासायी व्यवस्था और लिये खुला रखना चाहिये और जो बात युक्ति तथा मागम
से ठीक उसके मानने और उसके अनुसार अपने मम्मा इट्टी जीवो उबटुं पवयणं तु सद्द हदि ।
आचार-विचारको परिवर्तित करने में मानाकानी न करनी मरादि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ मत्तदो तं सम्मं दरिसिज जदा गा सद्दादि ।
चाहिये तभी वे उचतिक मार्गपर ठीक तौर पर अग्रसर हो सो त्रैव हवह मिछाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।। २८॥ सकग भारतमाधम-साधनाका यथाय फल प्रासकर सका -गोम्मटसार-जीवकाण्ड
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता०८-२-१९४४