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किरण १०-११]
चांदनीके चार दिन
पता
कराह रहीशाली नारी मागन्धिके कारणका, पीव
गदर हो रहा था, व्यवस्था जो वहाँकी भंग हो रही कैसा बीभत्स-श्य १११ थी! मस्तिष्कके मूक-भाषणोंको मुखरित करना जो अनायास उनकी वाणी फूट पड़ी-'यह क्या काठको कठिन हो रहा था!
हुआ? पर उसके विद्रोही मनने उसे न रहने दिया। महाराज समीप पाए ! वह फिर आग उगलने लगी भीतरकी-फुकारते जो कुछ देखनेको उन्हें मिला, वह एक दम हुए बोली-हुम्ह! हत्याकी जड़ तो नंगे-साधु! विचित्र था कौतुकमय इन्द्रजाल!अप्सराके रूपको जिन्हें शहरभरमें मरनेके लिए दूसरी कोई जगह ही लज्जित करने वाला महारानी सतीका सारा सौन्दर्य नहीं मिली! बेहया, बेशर्म कहींके ! अपनी आनन्द कुरूप बन गया है ! कोद फूट निकला है। खन, पीव की दुनिया नहीं बसा सके तो चले दूसरेकी आबाद- की दुर्गन्धि छूट रही है ! सुन्धिके कारण भ्रमरोंसे दुनियामें आग लगाने! न जाने कबकी मुझसे दुश्मनी घिरी रहनेवाली नारी मक्खियां उड़ा रही है, वेदनासे निकालने चले आए--कम्बख्त! मेरा स्थान था जहाँ, कराह रही है-वत ! चाँदनी-सा शरीर, अमावस्या वह हृदय अपनी ओर खींन ले गए-उफ!!
की रात-सा काला, डरावना लग रहा है! कुटिल प्रतिहिंसाके जहरने सतीकी बची-खुची महागज स्तब्ध! मानवताका अन्त कर दिया। विश्व-हितकारी, वंदनीय, चकित, अचम्भित !! पतित-पावन गुरुओंक लिए अनेक कुवचन कह कर बोले-'अरे, यह हुश्रा क्या तुम्हें १ इतना परिक्रोध शान्त करने लगी वह !"
वर्तन, इतनी जल्दी ?' औफू !!
रूप नारीका जीवन है, कुरूपता उसकी मृत्यु !" दाँत पीसते, आरक्त नेत्रोंसे खून बरसाती हुई और पाप मानिए कि सतीकी मृत्यु हो चुकी थी! रूप सती बोली, वाणीमें प्रकम्पन था, पापकी ज्वाला थी; जो उसका नष्ट हो चुका था। वह जो थब कुरूपा थी,
और थी विवेक-हीनता-गनीमत समझो, कि तुम बदसूरत थी, रुग्णा थी; कोदिन थी! मेरी आँखोंसे ओझल हो-दुष्टो ! नहीं तो बोटी-बोटी वह सिसक-सिसक कर रोने लगी! मुंचवा कर कुत्तोंको डलवा देती !'
महाराजने फिर पूछा-रोती हो? बताभो न ? पापकी पराकाष्ठा!
बात क्या है-प्रिये सत्साधु-निन्दाका घोर-पाप !!
'कुछ नहीं है-महाराज! मुझे अपने किएका
फल मिल गया है!'-दुखित, दीन और पीड़ित स्वर पात्र-दानका पावन-पुण्य प्राप्त कर जब महाराज में सतीने कहा। सुरत वापस लौटे, तब मुँह उनका अन्तरंगकी प्रस- “किया क्या था तुमने ? क्या मेरे पीछे कुछ प्रतासे उहीत हो रहा था! वह अपनेको भाग्यशाली - घटना घटी?' समझ रहे थे। अपरिग्रहत्वके आदर्श दिगम्बर- हाँ! कोधकी गुलामी में मैंने वह पाप कर डाला, साधुओंको आहार-दान करना जो साधारण चीज़ जो दुनियाके बड़े पापोंमेंसे एक था। और उसी तीन नहीं होती, न ?
पापका तत्काल-हाथों-हाथ यह नतीजा मुझे मिला सोचते भारहे थे-'धन्य है आजका दिन! है-प्राणेश्वर !! साधु-सेवाका अवसर मिल सका!कितने पुण्य-कर्म 'कौन बड़ा पाप?-महाराजने उत्सुक हो पूछा ! से मिलता है ऐसी महान आत्माओंका दर्शन ?
'साधु-निन्दा! पर, जैसे ही विलास-भूमिमें उन्होंने पैर रखा, 'ऐं, साधु-निन्दाकी तुमने ?' कि वह भकषका कर दो-डग पीछे हट गए!
रानी चुप !
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- पात्रदानका पावन