Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 398
________________ [किरण १०-११ चाँदनीके चार दिन ३५२ और तब स्वयं इस बातकी गहराईको देख सकेंगे कि खास बात हो, और उसका सम्बन्ध मुझमे हो, तो पाप बुर है। नहीं करना चाहिए इमलिए कि उससे उम सम्बादको भी न गेका जाय । शेष कार्यों के लिए दुख मिलता है! मेरे पास आनेकी कोई आवश्यकता नहीं !! अयोध्याके महाराज सुरत बुरे आदमी नहीं थे! अन्तःपुर-वासी महाराज सुरतकी प्रज्ञाभोंका-सतबुरे होते हैं वे, जो सत्ताके मदमें अन्याय पर उतर कता पूर्वक पालन हो रहा है! राज्य-व्यवस्था चल आते हैं! और आप मानिए, यह बुगई उनमें नहीं रही हैन्यायके पथ पर ! और महाराज सुरत प्रधान थी-जरा भी नहीं! महिषी--महारानी--सतीके कमलाननके भ्रमर बने हाँ, एक अवाँच्छनीयता उनमें ज़रूर थी। और हुए मधुगन करते नहीं अघा रहे! वह यह कि वे इस वासना-पूर्ण सिद्धान्त पर यकीन तृप्तिका सबब भी तो हो ? वासनासे 'सृप्ति' का करने लगे थे कि राज्य-वैभव पानेका मक़सद यह है, नाता ही कब रहा है? फिर हम-तुम साधन-समृद्धिकि जी-भर कर विषय-भोगोंका स्वाद चखा जाय ! हीन जब एक स्त्रीके समाव पर दुनियाको भूले जा अपने जीवनको इसी साँचे में ढाल भी लिया था रहे हैं, तो महाराज सुरतकी तो बात क्या ? स्वयंउन्होंने ! रात-दिन अंतःपुरमें पड़े रहते ! राज-काज गजा ! दस-बीम-पचास नहीं, पूरी पांच सौ रानियाँ ! का सारा बोझ योग्य मंत्रियों के कन्धों पर था। जो और वह भी ऐमी-बैसी नहीं, कोई अप्सरा-सी, तो उचित उत्तमताके साथ वहन कर रहे थे ! महाराजकी कोई चाँदनी-सी लुभावक! महारानीके सौन्दयेके अनुपस्थिति किसीको अखर नहीं रही थी ! यों, गाहे-ब- वारेमें लिखना तो व्यर्थ-विस्तार करना होगा । सिर्फ गाहे महाराजके चरण भी दबारमें पाते ही!" इतना कहना काफी है, कि वह बहुत सुन्दर थी! पाँच सौ देवियों जैसी रमणियों के सौन्दर्यमें डूवे महाराज जी उसी पर अधिक भासक्त थे, यह किसी रहने पर भी, महाराज सुरतके अन्तःकरणकी ज्योति गुण पर ही ! और शायद वह गुण उसकी खूबसूरती बिल्कुल बुझी नहीं थी, कुछकाश शेष था ! जहाँ ही थी! विलासताको सामने रख कर जीवन-पथ तय करना महारानी सती अपने सौन्दर्यसे अनभिज्ञ नहीं उन्होंने विचारा, वहाँ मानवोचित कर्तव्यको भूलनेकी थी। उसे अभिमान था, कि वह सारे अन्तःपुरमें ही भी ग़लती उन्होंने नहीं की! नहीं, शायद मारे संमार-भरमें पहले-नम्बरकी सुन्दरी अवश्य ही वह अपनी प्यारी प्रजाके समयको है! महाराज सुरत-सा व्यक्ति जो उस पर अपने राग-रंग में व्यतीत करते हैं! वह राजसी प्रतिभा, आपको चढ़ा चुका था ! शक्ति और प्रोज, जिसे जन-हितके कार्यों में लगना पुरुषकी पराजयसे नारीमें अहंकार-मय प्रमोद चाहिए था नहीं लग रहा ! लेकिन वह इन चीजोंका प्रकट न हो, यह मम्भव नहीं! शायद-महारानी दुरुपयोग भी नहीं करते! वरन् जब समय मिलता मतीका विश्वाम था, कि मौन्दर्यसे अधिक नारीकी है, विवेककी चारी पाती है, कामाग्नि-विषय-लालसा प्रतिष्ठाका दूसग कोई हेतु नहीं हो सकता! अगर उस –ठन्डी पड़ती है तो विचारते हैं-'मैं मनुष्य हूँ ! के पास रूप है, तो किमी दूसरे गुण या भाकर्षणकी मुझे मानव जीवनसे लाभ लेना ही चाहिए ! मैं कतई उमे जरूरत नहीं! भले ही उसका अन्तरंग राजा हूँ ! मुझे प्रजाके सुख-दुख में हाथ बंटाना चाहिए, स्वस्थ न हो ! पुरुषकी महानुभूति उसे मिलेगी ही! उनकी परवरिश करनी चापिए !! "रुप नारीका जीवन है। कुरूपता उसकी मृत्यु! और वे दोनों ओरसे बेफिक्र नहीं हैं। उनकी घोषणा है-'अगर साधु-महात्मा इधर बाबें, तो बहुत दिनों बाद ! मुझे फौरन सूचित किया जाय ! अगर प्रजाकी कोई एक दिन : * x

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