Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 381
________________ ३३८ एक महत्व एवं खोजपूर्ण लेखमें' अनेक प्रभागों द्वारा यह लिन्द किया है कि 'निर्युसिकार भद्रबाहु विक्रमकी छठी शताब्दीमें होगये हैं. वे जाति ब्राह्मण थे, प्रसिद्ध ज्योतिषी wisमिहर इनका भाई था xxx नियुक्तियां आदि पर्वतियां इनके बुद्धिवैभवमेंसे उत्पन्न हुई हैं' x x x बराह सिहरका समय ईसाकी छठी शताब्दी (२०५ से १८१ A. D. तक) है। इससे भद्रबाहुका समय भी छठी शताब्दी निर्विवाद सिद्ध होता है।' मैं पहिले यह कह आया हूँ कि भद्रबाहुने केवलीके उपयोग क्रमवादका प्रस्थापन किया है और युगपत्वादका खंडन किया है। ईसाकी पांचवी और विक्रमकी छठी शताब्दी के विद्वान् श्रा० पूज्यपादमे अपनी सर्वार्थसिद्धि में (१३) युगपत्वादका समर्थन मात्र किया है पर क्रमवाद के संबंध में कुछ भी नहीं लिखा। यदि क्रमवाद इनके पहिले प्रचलित हो चुका होता तो वे इसका अवश्य आालीचन करते । जैसा कि पूज्यपादके उत्तरवर्ती अकलंकदेवने १ मूललेख गुजराती भाषा में है और वह 'श्रात्मानन्द जन्मशताब्दी-प्रथमं प्रकट हुआ था और हिन्दीमें अनुवा दिन होकर 'अनेकान्त' वर्ष ३ किरण १२ में प्रकाशित हुआ है। [ ] गांधी श्राकर भारत में, भारतको मार्ग बताया । तुमने ही अधिकारों पर, लड़ना मरना खिलाया ॥ [२] तुमने निशस्त्र भारतको, एक दिव्य-शस्त्र दे डाला । अपना भी जीवन अर्पण, भारत के दिन कर डाला ॥ [ a ] सुमने वैभव से स्वेली, अनेकान्त लाग्बों ही बार सु होली। [ वर्ष ६ क्रमवादका खंडन किया है और युगपतवादका ही समर्थन किया है। इससे भी मालूम होता है कि नियुक्तिकार ईसा की पांचवी शताब्दीके बादके विद्वान् हैं। उधर निर्युसिकार ने सिद्धसेनके अभेदवादको कोई आलोचना नहीं की सिर्फ युगपत्वादका ही खंडन किया है इस लिये इनको उत्तरा वधि सिद्धमेनका समय है अर्थात सातवीं शताब्दी है । इस तरह नियुक्तिकारका वही समय प्रसिद्ध होता है जो श्रीमुनि चतुरविजयजीने बतलाया है । अर्थात् छठी शताब्दी इनका समय है । ऐसी हालसमें नियुक्तिकार भद्रबाहु उपयुक्त आपतियोंके रहते हुये दूसरी तीसरी शताब्दी के विद्वान् स्वामी समन्तभद्रके समकालीन कदापि नहीं हो मकतेसमन्तभद्र के साथ उनके एक व्यक्तित्वकी बात सो बहुत दूरकी है । और इसलिये प्रो० साहबने बीरनिर्वाणा मे ६०४ वर्षके पश्चात् नि में ही अर्थात दूसरी शताब्दी में नियुक्तिकार भद्रबाहुके होने की जो कल्पना कर डाली है वह किसी तरह भी ठीक नहीं है। आशा है प्रोफेसर सा० इन सब प्रमायोंकी रोशनी में इस विषयपर फिरसे विचार करने की कृपा करेंगे । वीर सेवामन्दिर, मरमावा गांधी-गीत भारत-हित कितनी तुमने, अब तक संस्थायें खोलीं ॥ [ कमलकिशोर 'वियोगी'] २१-४-४४ [ ] महलों में रहना कुटिया को ही अपनाया । छोड़ा. कृषकों की दशा सुधारी, हरिजनको गले लगाया ॥ [ * ] बस भारत में तुमने ही, हिंसा की आग बुझाई। 'खादी पहनो श्री कानी', यह तुमने प्रथा चलाई ॥ [] तुमने बापू ! भारतको, मोते से अरे जगाया । पथदर्शक बन कर तुमने, स्वातंत्र्य मार्ग बतलाया ॥

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