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अनेकान्त
[वर्ष ६
करते थे कि किस प्रकारसे पर्वतको पदार्थीका सथा रूप विश्वास नहीं होता था कि वह चेतनावस्थामें है। क्या यह दिखाया जा सके-पर्वतको सच्चे धर्मके प्रति श्राकर्षित स्च कि उसके कानोने पर्वतके मुखसं यह अर्थ सुना है? करनेकी पिताकी अभिलाषा मनमें ही रहगई। वह अपने पुत्रका नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता! पर्वत पंडित है! उसका गुरुसुधार कर पाने के पूर्व ही इस लोकसे उठ गया।
भाई है। प्राचार्यने दानोंको एक साथ ही शिक्षा दी है।
हो सकता है यह उसके कानोंका ही भ्रम हो ? ऐसा सोच तीनों शिष्य क्रमश: युवक हुए । नृपकुमार वसु राज- नारदने अपनी शंका निवारणार्थ पर्वतसे प्रश्न किया "क्या कुनके नियमके अनुसार मिहासनका अधिकारी हुश्रा। यह सच है कि तुमने ऐसा अर्थ कहा है?" उसने गुरुमे अच्छी शिक्षा गई थी। प्रजाको अपनी सन्तान इसके आगेका हाल पाठकोंको प्रारम्भमें ही मालूम हो के समान पालना उसने अपना कर्तव्य समझा और न्याय चका। को अपना बन्न । राजा वसुके न्याय और शामनकी मर्वत्र धूम थी। प्रजामें शान्ति थी। मनुष्योंके हृदयोंमें धर्मकी
नारदको विदा कर पर्वनने गृहकी ओर प्रस्थान किया। भावना थी और मुख पर थी 'गजा वसुकी जय'1
पर्वतको अपने पाण्डत्य पर विश्वास था । वह अहंवादी था।
उसे गर्व था कि उस जैसा पण्डित पुरी भरमें पर्वत अपने पिताकी गद्दीका अधिकारी हुश्रा । अपने
दूसरा नहीं है। फिर यह तुच्छ नारद जो उसके पिताके पिताकेही समान वह प्रकांड विद्वान् था। वह महान्
टुकड़ोसे पला और उन्हीं द्वाग प्रदत्तविद्या द्वारा कुछ समझ तार्किक था। शास्त्रोंका उसने गहरा अध्ययन किया था।
ने लगा. कैसे उसकी समानता कर सकता है। वह मन ही उसके पाण्डित्यका लोहा देशभर मानना था ।
मन फूला जा रहा था। कल राजसभामें शास्त्रार्थ होगा, पर्वतके श्राग्रहसे नारदने एक दिन उस आश्रममें प्रवेश
जिसमें उसकी जय होगी और नारदकी पराजय ! शर्तके किया। पर्वत अपनी शिष्यमंडल के बीच उच्चामन पर विराज
अनुमार नारदका जिहाछेद होगा और उसका ? उसका मान था । शिष्यगण भक्ति और श्रद्धासे नम्रीभूत थे। पर्वत
होगा अादर ! का प्रवचन हो रहा था-"धर्म सेवनका मुख्य साधन यश
इसी प्रकार सोचता पर्वत घर पहुँचा। बेटेको प्रसन्न और पूजा है। गृहस्थोंको तो पुण्यलाभ केवल यश और
देख माँ न रह सकी। प्रसन्नताका कारण जाननेके लिये पूजासे ही हो सकता है। देवगण पूजासे प्रसन्न होते हैं और
पूछ ही बैठी "क्या बात है पर्वत ! आज नो फूला नहीं अपने भक्तोंक कष्टोंका निवारण करते हैं। उन्हें उबस्थान देते हैं। कीर्ति और यश देते हैं। धन और धान्यसे उनका
समा रहा है।" खजाना भरते हैं। यश और पूजा करनेसे ही स्वर्गको प्राप्ति
"कुछ न पूछो मां, कल गजसभामें जाना है" पर्वत
ने गर्व से कहा। होती है हर गृहस्थको पुण्यार्जन और पापप्रणाशनके लिये यश पूजादि विधिवत् करने चाहिये। देवताश्रीको बलि
"क्यों ? गजावसुने निमंत्रित किया होगा! बड़ा नम्र समर्पित करना चाहिये। अश्वमेध नरमेध श्रादि अनेक बालक था वह! 'मौ माँ' कहता हुआ मेरी गोद में श्रा पकारसे यशोंका विधान किया गया है। ये सभी यज्ञ स्वर्गक बैठता था ! मैने भी उसे बहुत दिनांसे नहीं देखा, कल मैं कारण होते हैं। देवी-देवताओको प्रसन्न करने के लिये उनके भी चलूंगी तेरे साथ ।" मनोनीत पशु भैसे बकरे और सुश्रर भेंट करना चाहिये ।
"नहीं माँ ! कल शास्त्रार्थ होगा। मेरा और नारदका!" शास्त्र में कहा भी है 'अजेयष्टव्यम्'।"
गर्वमिश्रित भाषामें पर्वत बोला। . 'पर्यटव्यम्' नारदने सुना। चेहरा उसका कुम्हला "नारदका ?" माँ विस्मित हो उठी। गया। अजैर्यष्टव्यम्' का यह अर्थ । पर्वतके मुखसे ऐसा "श, हां! मेरा नारदके साथ ! जो हारेगा उसका बिरुद्ध अर्थ सुन कर नारद भौंचका सा रह गया। उसे जिहाछेद होगा।" उसी प्रकार पर्वतने उत्तर दिया।