________________
३४४
अनेकान्त
पंक्ति में 'एतेन स्थापिता' वाक्यके श्रागे 'करी' और रिक स्थानकी जगह पर 'दीहा ड्रायिकं च वशं करी' पाठ है, जिससे वह कारिका पूर्ण हो जाती है।
पृष्ठ २५२ की पंक्ति २२ में कारिका ३० के 'पचस्य नापि दोषों' पदके आगे 'यं कचित्सत्यं प्रसिद्धता' पाठ और है जिससे इस कारिका अधूरापन दूर हो जाता है।
पृष्ठ १६१ को पंक्ति १ की कारिका नं० ३१ बैंका तृतीयचरण है 'संबंधि परिणामत्वे' । इस चरण के जोड़ने से यह कारिका पूर्ण हो जाती है।
पृष्ठ २७६ कारिका नं० १०२ के द्वितीय चरण में 'स्तन सूचिताः' के स्थान पर 'स्वत्र सूचिता:' पाठ पाया जाता हैं जो ठीक मालूम होता है और उससे अर्थ विषयक संगति भी ठीक बैठ जाती है।
पृष्ट २७७ की पंक्ति ४ कारिका १ का चतुर्थ चरणा है'ध्यासितो द्विविधो यथा पंक्ति ७ में 'समर्थ' के बाद रिक्त स्थानीय पाठ 'स च शाश्वतः' है । पंक्ति में 'विश्रुतः' के बाद 'सकलाभ्यासाद्ज्ञायमानः' पाठ रिक्त स्थानीय है । पंक्ति १३ का उत्तरार्ध इस प्रकार है :--' ज्ञेयं प्रश्नवशास्त्रैवं कथं तैरिति मन्यते' और पंक्ति १३ में वा आदिका स्थामीय पाठ है- 'चापि समुदाय मुदाहृतः ।
पृष्ठ ३०५ की पंक्ति ४ के 'समान कार्यासौ प्रतिषेधः विद्भिः' के स्थान पर लिखित प्रतिमें 'समानकार्यों सौ प्रतिषेधः स्याद्वादिभिः' पाठ उपलब्ध होता है । पंक्ति ११ के 'नास्तीति' वाक्यके आगे 'तत्रैव' पाठ रिक स्थानीय है। पंक्ति १३ में 'प्रद्यनस्य' के स्थान पर लिखित प्रतिमें ग्राह्य घनस्य' पाठ पाया जाता है। और पंक्ति १७ में 'ना' के आगे 'उपपद्यते' क्रियासं पूर्व'पतितव' वाक्य मुद्रित प्रतिके रिक्तस्थानकी पूर्ति करता है।
―
-
-
7
पृष्ठ ३३० की अन्तिम पंक्तिके अन्तिम पद 'उक्तप्रायं' के आगे और पृ० ३३१ की प्रथम पंक्तिके प्रथम पद 'जायते' के पहले अर्थात् दोनों पदके मध्य में ऐसा चिन्ह देकर हासिये पर ४२ व सूत्र मय भाष्य तथा वातिकके निम्न प्रकार दिया है ----
'खौकान्तिकानामष्टी सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥ ४२ ॥ ब्रह्मलोक निवासिनां लौकान्तिकदेवानां समस्तानां
[ वर्ष ६
सदैवाष्टौ सागरोपमस्थितिर्व्यभिचारवर्जिता ज्ञातव्या । लौकान्तिक सुराणां च सर्वेषां सागराणि वै । अष्टावपि विजानीयारिस्थतिरेषा प्रकीर्तिता ॥ १ ॥ मेरी राय में पूर्वापर सम्बन्धकी दृष्टिसे यह सूत्रादिके ४१ वें सूत्र के माध्यकी समाप्तिके अनन्तर होना चाहिये और इसलिये इस मुद्रित प्रतिके पृ० ३६१ पर वार्तिक नं० १४ के बाद बनाना चाहिये। टूटका चिन्ह देते समय कुछ गलती हुई जान पड़ती है।
पृष्ठ ४२३ की पंक्ति १७ में 'शब्द' के आगे के रिकस्थानमें 'सहभावित्व' पाठ है ।
पृष्ठ ४२४ की पंक्ति ७-८ में 'पर्धा गगं' के स्थान पर पर्यायागम' पाठ है ।
पृष्ठ ४४५ की पंक्ति २१ में ११ वीं कारिका जो पूर्वाध छूटा हुआ वह इस प्रकार है :
'वैभाविकी क्रिया सा स्याद्विभवो येन विद्यते' :
पृष्ठ ४५३ की पंक्ति १० में 'सिद्धाः' पदके आगे के रिक्त स्थानका पाठ 'तदुभय' है ।
पृष्ठ ४०३ की पंक्ति २१ में 'मदत्तमपि पाठके पूर्वका स्थानीय पाठ 'तथाउस' है ।
...
पृ० २०७ पर वे अध्यायके ४७ वे सूत्रका जो भाष्यादिक ऋटित है वह सब इस प्रकार है :--
"आभ्यन्तरविरोधने सति च सेवनाप्रतिसेवनादोषविधानमित्यर्थः ततश्च संयमादिभिरनुयोगः साध्याः ब्यारूपेयाः । संयमनश्रुतं च प्रतिसेवना च तीर्थं च लिंगं च माओवाद अस्थानानि च संयमत प्रतिसेवनाती लिंगस्थानिय विकल्पाः भेदाः
सेवनातीर्थ लिंग श्योपपादस्थानविकल्पास्तेभ्यः ततः पुढाकादयेति पंचमहर्षयः संयमादिभिरष्टभि भेदैरम्योन्यभेदेन साध्याः व्यवस्थापनीयाः व्याख्यातव्याः इत्यर्थः । तथाहि-
पुजाको कुरकु
छेदोपस्थापनाख्यान सामायिकमुभौस्थिरं ॥ चतुर्षु ते भवत्येते कषायसकुशीलकाः । निग्रंथस्नातको द्वौ स्तः तो यथाख्यातसंयमे ॥ पुलाकवकुशकुशीलाः प्रतिसेवना सामायिक छेदोपस्था नानामसंयमद्वये वर्तते सामायिक दीपस्थापना परा