Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 376
________________ किरण १०-११] क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं। बह खित होना है कि पूज्य गदके बाद और अकलंक कमपन' और अभेदप का सबबन भी किया और पहले क्रमप और अभेदपक पैदा हुये तथा नियुक्ति- युगपत् पक्षको मान्य रखा है। इतना ही नहीं किन्तु कार भद्रबाहु और जिन भद्रमणि समाश्रम तथा भकलंक क्रमपम माननेवालोंको केवव्ययवादी तक कहा है। का मध्यकाल अमेवपक्ष स्थापन और उसके प्रतिहाता इतना प्रासनिक कहने बात अब में नियुक्तिकार (सिडसेन) का होना चाहिये। इसका खुलामा इस भद्रबाहुको उपर्युक्त गाथामे विरोध प्रकट कवाये समन्तभद्रके मातमीमांसा और स्वयंभूस्तोत्रगत समापयों श्वेताम्बर परंपरामें केवीके केवलज्ञान और देवख को रहता हूँ जिनमें देवी ज्ञान और दर्शन उपयोग पर्शनोपयोग सम्बन्धमें तीन प क्रमपम २ युगपत् योगपचका कथन किया गया:पर और । अभेदपत। कुछ प्राचार्य ऐसे हैं जो केवलीके 'तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्मर्वभामनम् । ज्ञान और दर्शनोपयोगको क्रमिक मानते हैं और कुछ -प्राप्तमीका० १.१ प्राचार्य ऐसे हैं जो दोनोंको योगपच मानते हैं तथा कुछ नाथ युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवाद्विवेदिथ भाचार्य ऐसे है. दोनोंको अभिन्न-एक मानते हैं । -स्वयंभूस्तोत्र १२६ किन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें केवल एकही पच और वह (घ) साकारं शानमनाकारं दर्शनमिति । नत् छद्मस्थषु बोगपचका। कमेगड वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।' मधिसिद्धि १-. भाचार्य भूतकालिके पटखंडागमम्मे लेकर अब तक 'जानन् पश्यन् समस्तं सममनुपरतं............। उप समस्त विगम्बर वाममय में योगपच पर ही एक -पूज्यपाद, सिद्धभ. ४ स्वरसे स्वीकार किया गया । प्रस्थत बकवेव (छ) 'श्रावरणारियन्नसंक्षये केवालनि युगपत् केबलशान दशेनया: साहचर्य। भास्करप्रतापप्रकाशमाचर्यवत् ।' श्रद्धेय पं. सुखलालजीने जो मिसनसे भी पहिले अभेद. -तत्वार्थगजवा. ६-४-१२ पक्षकी संभावना की है (शानविन्दु प्र. पृ. ६.) का (च) 'दंसगापुर्व गाणं दुमस्थागंगा दुरिण उवअंगा। विचारणीय है। क्योंकि उसमें कितनी आपत्तियां जुग जम्हा कंवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि । उपस्थित होती है। -द्रव्यसं.॥ २ देखो, पिछले फुटनोटमें उल्लिम्वित विशेषणवतीकी १८४, ४ 'तज्ज्ञानदर्शनयोः कमवृत्ती हि सर्वशत्वं कादचिकं स्यात् १८५ नंबरकी गाथा । -अष्टशती का.... . यथा: ५ 'नत्र ज्ञानमेव दर्शनमिति केवलिनोऽतीनानागतदशिव(क) 'सयं भयर्व उप्पएणणाणाद रिमी म... सवलोए मयुक्तं? तन, कि कारणं ? निरावरणत्वात् । यथा सबजीवे सम्बभागे मन्वं ममं जाणदि पस्सदि...." मास्करस्य निरस्तषनपटलावरणस्य यत्र प्रकाशस्तत्र -पखंडा० पयहिअणु. सू० ७८ प्रतापः यत्र च प्रतास्तत्र प्रकाशः। तथा निरावग्यास्य (स्व) जुगवं वाणाणं केवलगाणिस्म दमणं च तहा। केवलिभास्करस्याचित्यमाहात्म्यायभूतिविशेषस्य यत्र ज्ञानं दिणयरपयासनापं जह वह तह मणेयच ॥ तत्रावश्यं दर्शनं यत्र च दर्शनं तत्रच ज्ञानं । -कुंदकुंद. शियम• गा. १५६ किच -तद्ववृत्तः ॥ १५ ॥ यथा हि अमद्तमनुपदिष्टं (ग) पस्सदि जाणदि य नहा तिणि वि काले मपजए सब्वे। च जानाति तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते । किच तह वा लोगमसेमं यस्मदि भयवं विगतमोहो॥ विकल्ात् ॥ १६ ॥ xxइति सिद्ध केललिनस्त्रिकालभावे समविसयत्ये सूगे जुगवं जहा पयासेह । गोचरं दर्शनं । -गजवा. ६-४ सव्वं वि तथा जुगवं केवनगाणं पयासेदि । ६ ..कालभेदवृत्तशानदर्शना: केवलिनः स्थादिपचन -शिवार्य, भगवनीबाराष. मा. २१४१,२१४२ केलिष्यवर्णवाद:'-माजवार्तिक..२६२, ६-१७-८

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