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अनकान्त
[ वर्ष ६
न दोनों जगह सष्टतया कहा गया है कि हे जिनेन्द्र इस गाथामें बनलाया गया है कि 'पभी चषभ भादि पापका ज्ञान एक साथ समस्त पदार्थोंको प्रकाश करता है।' महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थकर एक दूप्य-एक बनके 'मापने समस्त चराचर जगतको हस्तामलकवत्-हाथमें साथ दीक्षित हुए ।' रक्खे हुये भांपलेकी तरह युगपत--एक साथ जाना है यहाँ भद्रबाहु तीर्थकरोंको मी एक वरूप उपधि'
और यह जानना भापका सदा--अर्थात नित्य और निरंतर रखनेका उल्लेख करते हैं, अन्य साधुओंकी तो बात हीण्या। है--ऐसा कोई भी समय नहीं जब भाप सब पदार्थोंको पर इसके विपरीत ममन्तभद्र क्या कहते है, इसे भी युगपत् न जानते हों।'
पाठक देखें:पाठक देखेंगे कि यहां समन्तभद्रने युगपत्पक्षका जोरों अहिंसा भूनानां जगति विदितं ब्रह्म परममे समर्थन किया है। उनके 'युगपत्' अखिलं' 'च' सहा' __ न मा तत्रारम्भोऽस्त्यपुरपि च यत्राश्रमविधी। और 'तबामाकवत्' सब ही पद सार्थक और खाम महत्व
ततस्तत्सिद्धयर्थ परमकरुणो प्रन्थमुभयम्हैं। उनका युगपत्पक्षका समर्थन करने वाला 'सदा'
भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः॥ शब्द तो खास तौरस ध्यान देने योग्य है, जो प्रकृत विषय
-स्वयंभूस्तोत्र ११६ की प्रामाणिकताकी रहिये और ऐतहामिक दृष्टि अपना
यहां कहा गया है कि 'हे ममिजिन ! प्राणियोंकी बास महत्व रखता है और जिसकी उपेक्षा नहीं की जा
अहिंसा- उन्हें घात नहीं करना प्रत्युस उनकी पसा करना सकती। वह पटना केवलीके क्रमिकज्ञान-दर्शनका विरोध
लोकविदित परमब्रह्मा है-मसिा सर्वोत्कृष्ट मारमाकरता है और योगपचवादका प्रबल समर्थन करता है।
परमात्मा है, वह अहिंसा उस साधुवर्गमें कदापि नहीं बन ज्यों कि ज्ञान-दर्शनकी क्रमिक दशा ज्ञानके ममय दर्शन
सकती है जहां अणुमात्र भी आरंभ है। इसी लिये है और दर्शनके समय ज्ञान नही रहेगा । और इस
परम कारुणिक ! मापने उस परम ब्रह्मस्वरूप अहिंसाकी लिये कोई भी ज्ञान महाकालीन-शाश्वत नहीं बन
सिद्धिके लिये उभय प्रकारके ग्रंथका-परिग्रहका-त्याग सकेगा। श्रद्धेय पं० सुखलाबजीने भी, ज्ञान विन्दुको
किया और विकृतवेष-अस्वाभाविक वेष (भस्मासानादि प्रस्तावना (पू. २५) में केवल प्राप्तमीमांसाके उक्त उल्लेख
रूपमें) तथा उपधि--वसमें या भामरयादिमें भारत नहीं भाधारपर समन्तभद्रको एकमात्र यौगपचपक्षका समर्थक बतलाया है। इस मान्यनाभेदसे नियुक्तिकार भद्रबाहु
जहां भद्रबाहु नियुक्तिमें तीथंकरोंके उमष परिग्रहको और मातमीमांसाकार समसभहमें सजीपार्थक्य स्था. छोड देनेपर भी उनके पीछे एक वच रखनेका सस्पत पित होजाता। यदि भद्रवाह और समनभद्र एक होते विधान करते हैं वहीं समन्तभद्र उभयपरिग्रहके जोर देने तो नियुक्तिमें कमवादका स्थापन और युगपतवादका खंडन भीर अणुमात्र भी भारम्भका काम न रखनेकी व्यवस्था तथा भासमीमामामें युगपतवादका कथन और फलितरूपेश करते हैं। साथ ही स्वाभाविक ननवेषके विरुव शादि क्रमिकवादका खंडन दृष्टिगोचर न होता।
धारणको विकृत वेष और उपधि का धारण बतलाकर मत: स्पष्ट कि समन्तभद्र और नियुक्तिकार भद्रबाहु १ यहाँ श्रा. हारभद्रकी ट का दृष्टव्य है-"सवेंडप एक भभित्र नहीं है--मित्र भित्र व्यक्ति हैं।
दूध्या' एकवलेगा निर्गना: जिनवरातुविशांत:,+ + (२) नियुक्तिकार भद्रबाहुने श्वेताम्बरीय भागोंकी कि पुन: मन्मतानुसारिणो न सोपधय:?तब य आधमान्यतानुसार चौबीसों तीर्थंकरोंको एक वस्त्रसे प्रवृजित गांवतो भगवद्भिः स साक्षादेवोक्त:, य पुनविनयभ्य: होना माना जैसा कि उनकी निम्न गाथासे प्रकट है-. स्थविरकाल्पकादिभेद भिन्नेभ्यं ऽनुशात: स खलु श्रपिशदात् सब्वेऽवि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा चवीसं। ज्ञेय इति ।-श्राव. नि. गा० २२७ । न य नाम अण्णाभिगे नो गिहिलिंगे कुलिंगं वा ॥ २ भद्रबाहको भी 'उपधि' का अर्थ वस्त्र विवक्षित है। यथा
--भावश्यक निगा०२२७ 'प्रयत्नांचय वाम सव्वं उयदि धुवनि जयणाए' पिडनि.२६