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फिरण १०-११]
क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं ?
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तीसरी बात यह है कि साहित्य में एकान्ततः' स्वामी स्वामी समन्तभद्र और दश नियुक्तियाँके कर्ता महबहु , पदका प्रयोग समन्तभके लिये ही नहीं हुआ है। विद्या- रिसीव क्या बभितt--एको व्यकिइसका डीक मन्दके पूर्ववर्ती प्रकर्षकदेवने पात्रकेसरीस्वामी या निर्णयहम जितना अधिक इन दोनों ही प्राचार्यों साहित्य सीमंधरस्वामीके लिये भी उसका प्रयोग किया है। कापाभ्यन्सर परीपक्ष द्वारा कर सकते है उसमा बसरे मित्र
ताम्बर साहित्य में सुधर्म गाधर बिबे स्वामी का कालीन उल्लेख वापयों बाबमाधनों अथवा पटनामोंकी बहुत कुछ प्रयोग पाया जाता। चौर भी किसनेही कल्पनापरसे नहीं कर सकतेसीको म्याणाचार्ष4. भाचार्य स्वामि-पदमाय उल्लेखित मिलने है। स्वयं प्रो. महेन्द्रकुमारजी शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि--"दूसरे साहपने बावश्यकसूत्रवृर्षि और श्वेताम्बर पहावली में समकालीन लेखकों द्वारा लिखी गई विश्वस्त सामभीके उस्लेखित 'वनस्वामी' नामक एक आचार्यका उल्लेख प्रभावमें अन्यों मान्सरिक परीक्षबको भधिक महत्व देना किया और उन्हें भी द्वादशवाय दुर्मिक कारण सत्यके अधिक निकट पहुंचनेका प्रशस्त मार्ग । पान्तरिक दक्षिबको विहार करने वाला खिला है। यदि द्वादशवर्षीय परामसके सिवाय अन्य बाहामाधनोंका उपयोग तोबीचदुर्मिनकी भविष्यवाणी करके दक्षिणको विहार करने और साम करके दोनों भोर किया जा सकता है, तथा बोग स्वामी उपाधिके कारण वनस्वामी भी भद्रबाहु द्वितीय करते भी है"। और ममन्नभद्रमे मिल नहीं है तो फिर इन बज्रस्वामीकी मतः इस निर्णय लिये भद्रबाहु द्वितीयकी नियुक्तियों तीसरी पीढ़ी में होने वाले उन सामन्तभद्रका क्या बनेगा और स्वामी समन्तभद्रको पासमीमांसादिकृतियोंका पन्त:जिन्हें प्रो. मा.ने पहावलीके कथनपर आपत्ति न करके परीक्षण होनापावश्यक है। समन्तभद्रकी कृतियों में प्रो. बस्वामीका प्रपौत्र शिष्य स्वीकार किया और समन्तभद्र साहबलकायनावका वारको महीं मानने परन्तु मुख्तार तथा सामंतभद्रको एक मी बतलाया है क्या प्रपितामह (प. श्री. जुगलकिशोरजीके पत्रके उत्तरमें उन्होंने मासबाबा) और प्रपौत्र (पपीता) भी एक हो सकते है अथवा मीमांसाके साथ युक्तनुशासन और स्वयम्भू स्तोत्रको भी क्या प्रपौत्रकी भविष्यवाणीपर ही प्रपितामहने दक्षिणवेश ममम्तभद्रकी कृतिरूपमे स्वीकार कर लिया। ऐसी को विहार किया था ? इसपर प्रो. सा.मे शायद ध्यान हालत में समन्तभनके इन तीनों प्रन्योंके साथ नियुक्तियों नहीं दिया। प्रस्तु, पदि वनस्वामो भद्रबाहु द्वितीय और का अन्तः परीक्षण कर मैंने जो कुछ अनुसंधान एवं समन्तभद्रसे भिक और स्वामी पदका प्रयोग पाब केसरी मिर्षय किया उसे में पहाँ पाठकसामने सता जैसे दूसरे प्राचार्योंके लिये भी होता रहा तो स्वामी जिससे पाठक और मान्य प्रोफेसर साहबन दोनों भाषायों उपाधिका 'एकान्ततःसमन्तभनके लिये ही प्रयुक्त होना का अपना अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व और विभिन्न समयमध्यभिचारिस तथा भ्र.स नहीं कहा जा सकता और इस वर्तित्व सहजमें ही जाम सकेंगे और साथ ही यह भी लिये 'स्वामी' स्पाधिके चाचारपर भवया द्वितीय और मालूम कर सकेंगे कि दोनों ही प्राचार्य भित्र भित्र परसमन्तभद्रको एक मिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार म्परामोंमें है:-- से सिद्धिका प्रयल बहुत कुछ श्रागत्तिके योग्य है। २ देखों, अकलंक अन्यत्रयी प्रस्तावना पृ.१४
इसमें सम्बह नहीं कि एक मामले अनेक व्यक्ति मी ३ भद्रबाहकतक दश नियुक्तिये प्रसिद्ध और ये श्वेताम्बर संभव है और अनेक नामों बाबा एक व्यक्ति भी हो सकता परम्परामें प्रसिद्ध आचारांय सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, भावहै। इसी बुनियाद पर समन्तभद्रके मी अनेक नाम हो श्यक सूत्र आदि भागमसूत्रोपर लिखी गई है। उनमेंसे सकते है और समन्तभद्र नामके अनेक व्यक्ति भी संभव
सूर्यप्रशति नियुक्ति और ऋषिभाषित निर्युक अनुपलब्ध है। परन्तु यहाँ प्रस्तुत विचार यह है कि प्रातमीमांसाकार नीष नियुक्ति और संसक्त नियुक्ति वीरसेवामन्दिरमें १ देखो. सिद्धिविनिश्चयका 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामका छटा नहीं है। बाकी नियुक्तियोंका ही अन्तः परीक्षण किया प्रस्ताव, लिखित प्रति पत्र ३..। .
गया है।