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गोत्र-विचार
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में भेद है। यही सबब है कि हमने गोत्रका अर्थ व्यवहार की परम्परा या व्यवहारवासोंकी परम्परा किया है।
(२) गोत्रकर्म जीवविपाकी है फिर भी उसका मोकर्मव्यकर्म शरीरको मान लेने में कोई आपत्ति नहीं। हाँ, एक बाधा अवश्य है कि और गोत्रका उदय भवके प्रथम समय में होता है और शरीरकी प्राप्ति प्रथम समय से लेकर चौथे समय तक किसी एक समय में होती है । अतः प्रारम्भमें शरीर उच्च और नीच गोत्र के उदयका अभ्यभिचारी कारण नहीं है। यही सबब है कि सिद्धान्तशा गोत्रको भयप्रत्यय और गुणाप्रत्यय स्वीकार किया है। गोत्रके दोनों भेदोंसे नीचगोत्र तो भवप्रत्यय ही है और उच्च गो भवप्रत्यय तथा गुणप्रस्थय दोनों प्रकारका होता है। इसका यह अभिप्राय है कि जिस में जिस गोत्र के उनकी सम्भावना है उसमें उसीका उदय होता है या नहीं। अन्यत्र तो एक एक गोत्रके उदयकी ही व्यवस्था है । पर कर्मभूमिके मनुष्य ऐसे हैं जिनके किसी भी गोत्रका उदय हो सकता है। हाँ यदि कोई उम्र गोत्री जीवनाच आचारवाले जीवोंकी परम्परामें उत्पन्न हो गया और समक दार होनेपर उसका उस परम्पराके प्रति अनुराग बढ़ गया तो उसके उब गोत्रके स्थान में मीगोत्रका उदय होजायगा । और यदि उसने उस परम्पराका त्याग कर दिया तो उसके उच्च गोत्रका ही उदय बना रहेगा। इसी प्रकार नीच गोत्र के सम्बन्धमें भी समझना चाहिये। मेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने इसी अर्थ में उच्च और नीच शरीरको उच्च और ate गोत्रका जोर्मद्रव्यकर्म कहा है । यदि हम ऐसा न मानकर इसके विपरीत उनके कथनका अर्थ करें जैसा कि वर्तमान में किया जाता है तो उनकी की हुई सारी व्यवस्था टाईमें पड़ जाती है। उदाहरण के लिये नैमिषन्द्र सिद्धान्तपुरुष और वे उनके लिये स्त्री, पुरुष और नपुंसकका शरीर नोकर्मद्रव्यकर्म कहा है। अब यदि यह ऐकान्तिक व्यवस्था मान की जाय तो बेके नौ अंग ही नहीं बन सकते हैं और कारबके पहले कार्यकी उत्पत्ति माननी पडती है । यहाँ यह विषय संचेपमें लिखा है मैं इसका विस्तारसे विचार करने वाला हूं। इस जिये जितना बि उससे मारा विषय साफ़ तो नहीं होता फिर भी उससे चिन्तकको भित्य और व्यवस्थाकी
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दिशा मिल जाती है।
(३) संक्रमय बन्धका ही एक भेद है। केव इतना ही है कि बन्ध नये कर्मोंका होता है मीर संक्रमवा सामें स्थित कमका । उसका प्रभाव उदयपर कुछ भी नहीं पड़ता है। अतः ओ भाई वह समझे बैठे है कि जिसका जहां होता है उसका वहां कार्य अवश्य होता होगा, उनकी यह धारणा गलत है। अब किस गतिमें किस गोत्रका संक्रमय होता है इसके लिये हमें बन्धपर ध्यान देना चाहिये; क्योंकि बम्धकामें ही उसमें अभ्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण होता है ऐसा नियम है। चारों गसिके जीवोंके दोनों गोत्रोंका बन्ध होता है दोनोंका संक्रमण भी होता है। जब गोषका बन्ध होगा तब ਕਦੋਂ ਦੀਆ ਬਾਸਵ ਜੋਧ ਜੀਵ ਬਅੰਬਾਨੀਆ *** होगा तब उसमें उप गोत्रका संक्रमण होगा । इससे यह निश्चय होगया कि संक्रमणका उदयसे कोई सम्बन्ध नहीं। यदि स्थिति और अनुभागका और कर्षक किया जाये तो इसके विषय में ऐसा नियम है कि उत्कर्ष तो बन्धकाल में ही होता है पर अपकर्षण बन्यकाल में भी होता है और बन्धकाखके बिना भी होता है। किन्तु प्रकृतियोंमें उदयभिषेक तक होता है जिसे उदीरया कहते हैं और अनुदयरूप प्रकृतियों में उदबाव बाह्य मिचेकों तक ही होता है। सो चारों गवियोंमें जिस गोत्रका उदय हो वहाँ उसीकी उदीरथा होती है अन्यकी नाहीं । इस प्रकार इस कथनसे यह विश्चित होगया कि चारों गतियोंमें दोनों गोत्रका संक्रमण होता है, पर उसका उदयसे कोई सम्बन्ध नहीं ।
(४) सतामें स्थित हव्यका उदबाबसमें निश्चित होना इसीका नाम उदीरया है सो यह क्रिया दवाडी प्रकृतिमें ही होती है अपनें नहीं, क्योंकि उदीरणा उदयकी
मामानी है। इसे परप्रकुतिया नहीं कहना चाहिये। संक्रमण तो एक प्रकृतिके निषेकका अन्य समा ate प्रकृतिके निषेकरूप हो जाना कहलाता है। जिसका विशेष खुलासा हम ऊपर कर आये हैं।
मेरी है कि इस विषयपर योग खूप विचार करें और खेलों द्वारा अपने अपने विचारोंको व्यक्त करें।