Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 370
________________ किरण १०-११] समन्तमद्-भारतीके कुछ नमूने ३२७ - - 'हे नाथ ! आपने इस अखिल विश्वको-चराचर जगतको-सदा करतलस्थित स्फटिक मणिके समान युगपत् जाना है, और आपके इस जानने में बाटाकरण-धनुगदिक और अन्तःकरण-मन-ये अलग अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते हैं। इसीसे हे बुधजन-स्तुत-अरिष्टनेमि जिन ! आपके न्याय-विहित और अमृत वय सक्ति-समयसरणादिविभूतिके प्रादुर्भावको लिये हुए--चरितमाहाल्यको भले प्रकार अवधारण करके हमपदेप्रसा-पिससे भाप में स्थित हुए हैं-मापके भक्त बने है और हमने आपका माश्रय लिया।' [ २३ ] श्रीपार्थ-जिनस्तोत्र तमालनीले सघनुम्लरिगुणः प्रकीर्ण-भीमाऽसमि-पायु-वृष्टिभिः। पलाहकरिवशैम्पद्रुतो महामना यो , चाल योगतः ॥१॥ 'तमालवृक्षके समान नील-श्यामवर्ण के धारक, इन्द्रधनुषों तथा विद्युद्गुणोंसे युक्त और भयर चन, बाय तथा वर्षाको सबभोर बखरने वाले ऐसे वरि-वशी -कमट शत्रुके इशारे पर नाचने वालेमेघोंसे उपद्रत होने पर-पीड़ित किये जाने पर--भी जो महामना योगस-शुक्लध्यानसे-बलायमान नहीं हुए। वृहत्फणा मण्डल मण्डपेन यं स्फुरत्तडिस्पिकचोपसनिकम्। जुगह नागो धरणो घराघरं विरागसंध्यातडिदम्युदो यथा ॥२॥ 'जिन्हें उपसर्गप्राप्त होनेपर धरणेन्द्र नामके नागने चमकती हुई बिजलीकी पीत दीप्तिको लिये हण वृहत्फणामों के मण्डलरूप मण्डपसे उसी प्रकार वेष्टित किया जिस प्रकार कृष्णसंध्यामें विक्टोपलक्षित मेच अथवा विविधवों की संध्यारूप विद्युतसे उपलक्षित मेघ पर्वतको बेष्टित करता है। स्पयोग निग्निश निशातपारया निशात्य यो दुर्जय मोविविषम् । अवापदाइन्स्यचित्यमद्भुतं त्रिलोकपूजाऽतिशयास्पदं पदम् ॥३॥ 'जिन्होंने अपने योग-शुक्लध्यान-रूप स्वकी सीण धारासे दुर्जय मोह-शवको नाश करके उस आईन्त्यपदको प्राप्त किया है जोकि अचिन्त्य है, अमृत है और त्रिलोककी पूजाके मतिराव (परमप्रकर्ष) का स्थान है। यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मष तपोषमास्तेऽपि तथा बुनूपः। बनौकमः स्वमवध्ययुद्धयः शमोपदेयं शरणं प्रपेदिरे ॥४॥ जिन्हें विधूतकल्मष-धानिकर्मचतुष्यरूप पापसे रहित-रामोपदेशक-मोक्षमार्गक उपदेष्टा-और ईश्वरके सकललोकप्रभुके-रूपमें देख कर वे (अन्यमनानुयायी) बनबासी तपस्वी मी शरण में प्रशस हुएमोक्षमार्गमें लगे-जो अपने ब्रमको-पंचाग्निसाधनादि रूप प्रयासको-विक समझ गये थे और सही (भगवान् पाई जैसे विधूतकल्मष ईश्वर) होने की इच्छा रखते थे।

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