Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 369
________________ ३२६ अनेकान्त त्रिदशेन्द्र-मौग्नि-मणि-रस्न-किरण-विसरोपचुम्बिनम् । पाद-युगलममलं भवतो विकमत्कुरोग्य-दलारुणोदरम् ॥ ३॥ नव-चन्द्र-रश्मि-कंवचाऽतिमधिर-शिवरातिापतम्। स्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्र-मुखरा महर्षयः॥ ॥ 'आपके इस निर्मल चरण-युगलको, जो ( प्रणाम करते हुए ) देवेन्द्रों के मुकुटोंकी मणियों और बनादिरलोंकी किरणोंके प्रसारसं उपचुम्बित है, जिसका उदर-पादतल-विकसित कमल-दलके समान रक्तवर्ण है और जिसकी अंगुलियोंका उन्नत प्रदेश नखरूप-चन्द्रमाओंकी किरणोंके परिमण्डलसे अति सुन्दर मालूम होता है, वे सुधी महर्षिजन प्रणाम करते हैं जो अपना आत्महित-साधनमें दत्तचित्त हैं और जिनके मुखपर सदा स्तुति-मन्त्र रहते हैं।' - चुतिमद्रयान-धि-बिम्ब-किरण-जटिलांशुमण्डलः। नोल-जलज-दल-राशि-वपुः सह बन्धुभिर्गाकेतुरीश्वरः ॥५॥ इलभृच ते स्वजनभक्ति-मुदितहदयो जनेश्वरी। धर्म-विनय-रसिकी सुतरा चरणारविन्द-युगलं प्रणेमतुः ॥६॥ 'जिनके शरीरका दीप्तिमण्डल पुतिको लिए हुए मुदर्शनचक्ररूप रधिमण्डलकी किरणोंसे जटिल है-संवलित है-और जिनका शरीर नीले कमल-दलोंकी राशिके समान श्यामवणे है उन गरुड़ध्वजनारायण--और हलधर--पलभद्र--दोनों लोकनायकोंने, जो स्वजनभक्तिसे प्रमुदितचित्त थे और धर्मरूपविनयाचारके रसिक थे, आपके दोनों चरणकमलोंको बन्धु-जनों के साथ बार बार प्रणाम किया है।' ककुद भुषः स्वधर-पोषिषित-शिवरेग्लङ्कृतः। मेघपटल-परिवीत-तटस्तष लक्षणानि लिखितानि पत्रिणा ॥७॥ बहतीतितीर्थमृषिभिश्च सततमभिगम्यतेऽथ च। प्रीति-चित्तत-हदयः परितो भृशमूर्जयन्त इति चिअतोऽचलः॥८॥ 'जो पृथ्वीका ककुद है-लके कन्धेके समीप स्थित ककुद-नामक सोंगरभाग जिस प्रकार शोभासम्पन्न होता है उसी प्रकार जो पृथ्वीके सब प्रयवोंके ऊपर स्थित शोभासम्पच उच्चस्थानकी गरिमाको प्राप्त है-विद्याधरोंकी बियोंसे सेषित शिवगेस अलंकृतो और मेघपटलोंसे व्याप्त तटोंको लिये हुए है वह विभुत-लोकप्रसिद्धऊर्जयन्त ( गिरनार .) नामका पर्वत (हे नेमिजिन ) इन्द्रद्वारा लिखे गये-उत्कीर्ण हुए-आपके चिन्होंको धारण करता है, इसलिये तीर्थस्थान है और आज भी भक्तिसे सल्लसितचित्त ऋषियोंद्वारा सब ओरसे निरन्तर अतिसेवित है- भक्तिभरे ऋषिगण अपनी आत्मसिद्धिके लिये बड़े चावसे आपके उस पुण्यस्थानका श्राश्रय लेते रहते हैं। बहिरन्तरप्युभयथा च करणमपिधाति नाऽर्थकृत् । नाथ युगपदखिलं च सदा स्वमिदं नलाऽऽमपनिवेदिय ॥६॥ अत एव ते बुधनुतस्य चरित-गुषमहतोदयम् । न्याय-विहितमबधार्य जिने स्पयि सुप्रसन-मनसः स्थिता वयम् १० नार ) नामका पता है और मेघपटलोंसे व्यापान उच्चस्थानकी गरिमाको प्रकार शोभासम्पन्न पतिसवित है- भास्थान है और आज भाग लिखे गये-वह विश्रुत-लोकप्रसिद्ध

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