Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 357
________________ अनेकान्त [वर्ष ६ फणा उठाए काला मार तथा दहाड़ता हुश्रा सिंह मस्तक की चाशनी चढ़ा चढ़ा कर आपको अमृत औषध खिला पर चढ़ बैठेगा। श्रन: ये धर्म मानने पड़ते हैं। इधर केवनी देते है। पहिले उसी प्रक्रियासे वे स्वयं अमृतत्वको प्रत भी अग्ने नियत सम्पूर्ण द्रव्य-पर्यायों को विश्वरूपसे जान ही कर सके हैं। वैद्य स्वयं कड़वे, चिरायता, कुटकी. गिलोय रहे हैं। अब इनमें उतारने की बात कोई रहती ही नहीं को नहीं खाना है. किन्तु सैकड़ोंको उसको खानेका उपदेश है। थोथे विषयोंको न छूना उनके लिये अच्छी बात है। देकर नीरोग कर देता है। प्रथम ही द्विभाषित्वका कार्य आपका घर मन्दिरजीसे पांच सौ गज दूर है एक गज चलने अतीव कठिन है अतः अर्हन्तकी महत्ता बढ़ जाती है। पर चार मौ निन्यानवे गज रह जाना है अापके घरमे आपने अपुनरुक्त अ, श्रा, क, ख, यो एक एक अक्षर या हजारों लाग्यों घर अपेक्षाकृत दोसौ. चारमौ. पाँचमी गज, द्विसंयोगी, माठ संयोगी, सठिसंयोगी, चौस ठिसंयोगी ऐसे या छहमी, बारहसौ, पन्द्रामौ फुट दूर है। अथवा बहत्तरसौ, कोरे एक कम एकांटुपमाण अक्षरों में सोलहमी चौंतीस एकसौ चवालीससौ, अठारह हजार इन हट कर है यों अनेक करोड अक्षरोंका भाग दे देने पर बन गये एकमौ बारह घर परस्सर में अपेक्षाकृत दूर दूग्नर हैं। श्राने जाने वालोंकी करोड़ पदों के बने द्वादशाङ्गपर भी विचार किया होगा विवक्षाके अनुसार दूर दूरनर निकट निकटनर या दिक् परि- और केवल एक मध्यम पद के दौसौवें भाग शेष रहे । घर्तन अथवा इंच, फुट, गन, विश्वांश. विश्वा, वीघाकी पाठ करोड़ अक्षरोंसे बना दिये सामायिक आदि चौदह अङ्गअसंख्य नापोंको धार रहे है । संकर, व्यतिकर रूपसे नापांकी बाह्य श्रुतका परामर्श किया है। यही केवलीका अतिशय गिनती यहुत बढ़ जाती है इत्यादि गणनामें श्राई हुई कोई है। अच्छा अब उसी विषय पर आईये किकल्पनाएँझूठीभी नहीं है--व्यक्तियों के. श्रुतज्ञानोद्वारा उनको केवलज्ञानी किस शेयको नहीं जानते हैं। इस प्रश्नसया जाना जा रहा है किन्तु ऐमी रद्दी बानोको सर्वश नहीं के सम्बन्धमें कहना यह है कि श्रादीश्वरके श्रात्मा या जानते हैं। जहाँ जहाँ लोका काशके नियत प्रदेशोपर गृह शरीरकी ऊँचाई ५.. धनुष है। यह आजकलके शास्त्रज्ञ बने हुए हैं वे उनके शानमें निर्विकल्पक झलक रहे हैं। बता रहे है। किन्तु स्वयं श्रादिनाथ भगवानके हायसे वे घर, होम, श्रालय ये शब्द भी मैंने श्रापको समझानेके एक धनुषसे भी कमती मात्र धनुषके थे और बाहुबलिलिये कह दिये है। वस्तुतः केवल शानका विषय श्रवक्तव्य है। केवलीकी सभामें उनका नाप इससे भी कमती यानी छद्मस्थ जीव ठलुवा बेठे वेल्जियम, हालैण्ड, जापान, धनुषका कहा गया था। दाईसौ धनुषकी अवगाहना वाले प्रास्ट्रेलिया, जर्मनी, अमेरिका, इंगलैन्ड श्रादिकी भाषाओं पद्मप्रभु भगवानके समवसरणमें ईधनुषका उपदेशित में या विभिन्न नापोंसे कल्पित पैमाइशें करते फिरें। अपने २ किया था। वस्तुतः ये नापकी लतें आपको समझानेके परमें अपेक्षाकृत गढ़ ली गई अनन्तानन्त दूर-निकटताओं लिये लगादी जाती हैं धनुषों, हाथों, अंगुलोंको कहाँ तक यानापोंको सर्वश कराठोत नहीं जानते हैं प्रत्यक्षशानमें शब्द लगानोगे। फिर देश, देशान्तरोके न्यारे न्यारे फुट, इंच योजना नहीं चलनी है। प्रत्यक्षशान अविचारक होता है। श्रादिके हजारों लाखों प्रकारोंकी कहाँ तक कल्पना करोगे। अमीर-गरीब किसीका भी विचार किये बिना सूर्य के समान केवलशानीके ज्ञान में तो मात्र रतनाही झलकता था कि भड़ाक संदे पदायाँका प्रनिभास कर देता है। हां, परोपकार प्रादीश्वर महाराज उतने नियत प्रदेशोंपर स्थित है। श्री स्वभाव वाले केवलशानीको पुरुषार्थ कर दुभाषियाके महावीर स्वामीने हैं धनुष श्रादिकी कल्पनासे रहित अव. सहश द्वादशांग वाणी द्वारा प्रारको अतीन्द्रिय सिद्धान्त क्तव्य नियत अन्गाहनाधारी ऋषभदेवको अपने क्षायिकशान समझा देना पड़ता है। जैसे कि हिन्दी अंग्रेजी दोनोका से जान लिया था। किसीने प्राग्रह कर पूछा तो स्वके हाथ पढ़ा हुभा दुभाषिया पंडित हिन्दीभाषीको अंग्रेजकी बात से २५. धनुषकी लम्बाई बता दी। फिर सैकड़ों वर्ष पीछेके और अंग्रेजको भारतीयका अभिप्राय शन्दान्तर बोल कर प्राचार्योंने शाहाय के स्वशरीर अनुसार ५०० धनुषकी समझा देता है उसी प्रकार केवलज्ञानी बिना इच्छाके समझा दी। पंचमकालके अन्त में होने वाले भी बीराजद पुरुषार्य द्वारा निर्विकल्प प्रमेय, पर व्यवहारमें माहेशन्दी मुनि महाराज अपने दो हाथोक शरीर अनुसार अमिल

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