Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 364
________________ ( ११० का शेष अंश) सम्बम्बन राना। इन भारोपोंके समर्थनमें किसी भी जायंगे और फिर फिर पत्र लिखकर सामाजिक बनकोबर- हेतुका प्रयोग नहीं किया गया और मलिहासाविक विषबाद नहीं करेंगे, परंतु मेरी धारणा गलत हुई और मापके सिको स्पट करके ही बतलाया गया है, तब ये नादिरपत्र फिर फिर पाते ही रहे और मापके अनेकान्तमें भी शाही मारोप कहाँ तक डीक है, इसे मैं उन विचारशीव मेरा नाम भाप बार बार छापते ही रहे. अतः यह पत्र पाठकोंके निर्णय पर ही चोदता हूं मो मेरे साहित्य और जिम्बका पापको भापके कार्यकी प्रति मेरा सर्वथा उपेवाभाव कार्योंसे परिचित हैं। साथ ही, इतना और भी बतक्षा देना है इसकी सूचना देता हूं ताकि श्राप मेरा मनोभाव स्पष्ट चाहता हूं कि पं. बेचरदासजीने माज तक, मेरी जानसमज जाय. कारीमें, मेरे किसी भी ऐतिहासिक लेखका प्रतिवाद नहीं मानवनाके नाते माप हमारे भाईतो भी सत्यकी किया-उसे विपरीत अथवा अन्यथा मिद करना तो दूरकी रष्टिये भाप हमारे लिए उपेक्षणीय है अतः भापकी किसी बात है। मात्र अपनी मान्यताके विख्य किसी बातको देश भी प्रकारकी साहित्यिक वा धार्मिक प्रवृत्तिमें मेरा देश भी कर उसे इतिहासका विपर्यास बतखाना ऐसा ही जैसा सहकार व सजाव नहीं है। इसकी श्राप नोंच कर लेना कि कोई सीपके टकको चांदी समझकर मोहवश अपना और यह समाचार अनेकोसमें छाप भी देना. रहा हो, स्वयं उसे चाँदी सिद्ध न कर सकता हो और मापके अनेकांसमें चाप कई वफे मेरा नाम लिखकर वसरोंके सीप सिह कर देनेको सत्यका विपर्यास बतलाता हो। लिखते हैं कि "अमुक कमिटिमें पंडित बेचरवासजी मुझे तो इस पत्रको पढ़कर अब ऐसा भाभास होता नियुक्त किये गपवाभुक कार्य पंडित बेचरदामजीको कि मई सन् की अनेकान्त किरवा नं.४ में मैंने पोपा गया" इत्यावि, अब आप ऐसा लिम्बनेका काटन जी लेखा--'क्या तत्वाधसूत्र अनागम-समन्वय में तत्वार्थउठावं और मेरा नाम लिखकर समाजमें भ्रम फैलानेका मनके बीज'--4. चन्द्रशेखरजी शासीका प्रकाशित अयानको खोदेखें किया था इस परसे भाप मुझसे कट हो गये है, यो कि इस पारे पत्रको अनेकांनमें अवश्य प्रकट कर देवें उममें शाखीजीने भापकी तटस्थताको चैलेंज करते हुए जिममे पमम्त निर्गवर बंधुओंको और समस्त श्वेताम्बर भापकी साम्प्रदायिक मनोवृत्तिको कुछ ना करके बनवाया बंध को मेरे विषयमें मचा हात मालम हो जाय था। तमामे आपने जिस पिंगल मन्थके सम्पादनादिका आपका बेचग्दास स्वयं वचन दिया था इसके प्रेरणात्मक पचों पर भी कुछ मालूम नहीं यह पत्र चिन और मस्तिष्ककी कमी ध्यान नहीं दिया। बादको चापकी मान्यता विषयक स्थिनिमें लिखा गया ! सब बात काय नायव जैसी मयुनिक लेख भी अनेकामसमें प्रकाशित हुए है, जिनका जान पाती है--विचार और विवेकके साथ उनका कोई श्रापमं माज तक कोई उसर नहीं बन सका और इस लिये बाप सम्बन्ध मालूम नहीं होता। पत्रमं एक बम पूर्वके भापकी वह कहना उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई, जोपन्तको मन सम्बन्धों पर ही पानी नहीं फेरा गया बलिक शिष्टता उन पत्रके रूपमें फूट पड़ी है!!! अच्छा होता यदि पंडित मन्यना और सुजनताको भी जलाअलि दी गई है!!! जी उसी समय मुझे अपने उपेक्षाभावसे सूचित कर देते। इतिहायज्ञमा और एकताका दम भरने वालोंकी प्रेमी मा होने पर नतो उन्हें मेरे पत्रको पढ़नेका कष्ट उठाना वाकपग्विाति और प्रेमी उदार लेखनी अवश्य ही ऐति परता, न महोगमवकी समिनि मध सम्पादकमंसमें उनका हामिकों तथा एकता-प्रेमियों के लिय चिन्ता और विचारकी नाम चुना जाता और न उन्हें इस पत्रके लिखनेकी नौबत वस्तु है ! मेरे जैमोंके प्रति “मर्वथा उपेक्षाभाव" की और ही पाती। उन्होंने गलनी की जो मुझे ऐसा मन: पयशानी 'मेरी किसी भी प्रकारकी साहियिका धार्मिक प्रवृत्ति में ममम लिया जो उत्तरके न श्राने मात्रसे सब कुछ भुला अपना क्षेश भी सहकार व मजाब न होनेकी घोषणा' तो कर उनके उस मधा उपेक्षाभावको समझ जाता । खैर, बनयकी कल्पनातील विशालताकी उपज मालम होगी!!! अब भापके इस पत्रने मेरी माँखें खोलदी है, मेरी गक्षत इम पत्रमें मेरे ऊपर तीन भारोप लगाये गये है फ्रडमीको दूर कर दिया है और मुझे पापके या भापकी (1) इतिहासका विपर्यास काना, (२) अनैक्य बढ़ानेक माम्प्रदायिक मनोवृत्ति एवं मण्यप्रेमको असली रूपमें ममम अनिष्ट प्रथानमें अग्रसर होना, और (३) मत्यमे कोई कामवसर मिल गया। ता. ३०-४-१६४४

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