Book Title: Anekant 1944 Book 06 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 360
________________ Tarp सम्पादकीय. १ जैनमत्यप्रकाशकी विरोधी भावना- यह निबित (वर्ष अंक) रसके बाद से 'जनसत्य. अनेकान्तकी गत सितम्बर मामी किरया (नं०.२) में प्रकाशने वीरसेनामन्दिरमें अपना मानाही बन्द कर दिया। बने 'वार-शासन स्त्पत्तिका समय और स्थान' नामका अब तीन महीने तक वह नहीं पाया तबमार्थकों अनेकान्त 'श्राफिमसे उसे पत्र लिखकर न ानेका कारण एक लेख ऐतहानिक टिसे लिखा था, जिसे पढ़कर और इस बात से क्षुब्ध होकर कि वीरशासन-जयन्तीक महोत्सव पूछा गया और अंकको शीघ्र भेजने की प्रेरणा की ममभी प्रस्ताव में "कुछ श्वेताम्श विद्वानोंके मम भी. गई। परन्तु उत्तरमें न तो कोई 'पत्र' पाया "और 'न उक अंक'ही' प्राप्त हो सके। हाल में २३ अप्रेलको अकस्मात् अस्थायी समिति में चुने गये है जिनसत्यप्रकाश के सम्पादक ७पैकका दर्शन हुआ है। उसके प्रथम लेख श्रीकांतशोह चामन नाल गोकलदासजी 'बहुत ही" विचलिन हो ना सम्पादकनुं श्वेताम्बरो प्रत्येर्नु मानस' को पढ़कर यह उठे थे और उन्होंने 'उसे श्वेताम्बगे ती स्थानकवासियों स्पष्ट हो गया कि उसके सम्पादकका हृदय अंमी तक विरोधी की आँखों पर पट्टी बांध कर उन्हें कुाँमें धकेलनेका प्रयल बतलाया था। साथ ही, अपने श्वेताम्बर भाइयों को यह भावनासे भरा हुआ है। सम्पादकीको जब कोई और बात' प्रेरणा भी की थी कि वे गनगृह पर होने वाले वीरशासन कहनको में मिली तब उनाने ६-७ महीने पहलका"एकत्र बाबू बहादुरसिंहजी सिपीका प्रकाशित किया और इसे जयन्ती-महोत्सव में शरीक न होवें। इस पर मैने भइयोगी कोकान्तमें बापनेका भारोप लगाकर श्वेताम्बरों में मेरे जैनम्रत्यप्रकाश . विवित्र सूझ' नाम का एक लेख लिवाथा जो नवम्बर मास की किरण नं. ४) में प्रति अन्यधीमाव फैलानेकी चेष्टा की है, और ऐसा करने में प्रकाशित हुआ है. .और उसमें सहयोगीके कथकी किर उन्हें मेरे उस पत्रको छिपाना पड़ामो मैंने बाबू बहादुर पुरस्सर, भालोचना कर उसे. नि:मार, नितुक अनुङ्गिन. सिहजीको उनक उक्त पत्रके उत्तर में रजिष्टरीसे मेजा और कहर साम्प्रदायिक मनोवृत्तिको लिये हुए व्यक्त किया क्या कि मर उस पत्रकी मौजूदंगी में वसा कोई भागेप नहीं था। साथ ही सम्पादकजीसे. या अनुरोध किया था कि वे मेरे लगाया जा सकता । उममें मैंने सिंधीजीको स्पष्ट लिख दिया इस लेख तथा पूर्ववर्ती 'लेखको भी अधिकलरूपसे अपने था कि "यदि उक्त (कि.नं. २ वाले) लेखको पद कर भी पत्र में प्रकाशित करनेकी कृपा करें, जिससे उनके पाठक आप पत्रके प्रकाशनकी जरूरत समझेगे तो वह अंगली स्वयं औचित्य और अनौचिलाका निर्णय करने में समर्थ हो किरण में प्रकाशित कर दिया जावेगा। जान पड़ता सिंधी मक; परन्तु मेरे लंखको प्रकाशित करना तो दूर रहा, सम्पा- जीने लेखको पढ़ कर अपने पत्रके प्रकाशनकी जरूरत नहीं दकजीसे लेखेकी युक्तियोंको कोई समुचित उत्तर भी नहीं समझी, इसीसे मुझे नहीं लिखा' और इसी लिये यह प्रकाबन सका, तब मात्र याकहकर ही उन्होंने सन्तोष धारण शित नहीं किया गया-अन्यत्र भी उन्होंने उसे स्वयं यह किया कि अनेकन्तिको सम्पादक बहुत प्रचार कर रहा हैकह कर प्रकाशित नहीं कराया कि उसके छापनेसे इन्कार वा वीरको प्रथम देशना सम्बन्धी श्वेताम्बरीय मान्यताका किया गया है। ऐसी हालतमें न छापनेके आरोपके लिये 'जीको न लगती हुई बतलाता है और उनके वर्तमान कोई गुंजाइश नहीं सती, फिर भी सम्पादकजी मुझ पर मागमोको गणधर-रचित न बतलाकर देवबिंगणिके आरोप लगाने बैठे है और अपने पाठकोंमें मेरे विषयका श्वेताम्बरीय मागम ठहराता है, उसे अपनी गानोका गैर- गलत प्रचार करना चाहते हैं, यह देख कर बड़ा ही सेंद वाजिबीमना बाज नहीं नो कल मालूम पड़ेगा। साथ ही तथा अफसोस होता है। और इससे सम्पादकजीकी कवित रखेताम्बरो के साकारकी उसकी माशा अफल नहीं हो सकेगी मनोति और विरोधी भावनाका और भी नमकप गमने

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