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अनेकान्त
[वर्ष ६
पत्रीनका वर्णन पाया जाता है, वह संकट कालकी देन नहीं (Hymbol) या रत्नत्रयका सूचक है। जैन-यज्ञोपवीत में है; किन्तु जैनसंस्कृतिका अंग है। कारण, वह व्रतका चिन्ह जैनीदृष्टि निहित है। अतएव उसे जैनधर्मका श्रावश्यकभंग भी कहा गया है । यज्ञापत्रीत व्रतों के धारण का प्रत'क अंगीकार करना शास्त्रीय मर्यादाके अनुकूल कहना होगा।
सम्पादकीय-विचारणा
पं० सुमेरचन्द्रजी दिवाकर सिवनीका जैनागम और यज्ञोपवीत' नामका जो लेग्ब अनेकान्तकी इसी किरणमें प्रकाशित हो रहा है उस पर सम्पादकीय-विचारणा इस प्रकार है
इस लेखमें विद्वान लेखकने भगवजिनमेन-प्रणीन विधिः। यत्र सम्यक्रवहानिर्न यत्र न वतदूषणम्" ऐसे ऐसे आदिपुराणके जिन वाक्योंको भागमप्रमाणाके रूपमें उपस्थित वाक्योंकी सृष्टि हुई है। प्रस्तु, यदि विद्वान लेखकको इस किया है वे विवादापा-कोटिमें स्थित हैं और इस लिये उस विषयमें दूमगेको चेलेंज करना इष्ट हो तो वे खुले तथा वक्त तक प्रमाणमें उपस्थित किये जानेके योग्य नहीं जब स्पष्ट शब्दोंमें चैलेंज करें, तभी दूसरे विद्वान उस पर तक विपक्षकी भोरसे यह कहा जाता है कि दक्षिणदेशकी गंभीरता तथा गहरे अनुसंधानके साथ विचार कर सकेंगे तत्कालीन परिस्थितिके वश मुख्यतः श्री जिनसेनाचार्यने और साथ ही भागम, भागममें मिश्रण तथा महावीरयज्ञोपवीत (जनेऊ) को अपनाकर उसे जैनाचाग्में दाखिल वाणीकी परंपरा इन सबके मर्मका उद्घाटन भी कर मकंगे। किया है--उनके समयसे पहले प्रायः ऐसा नहीं था और न कविवर पं. बनारसीदासजीके मर्धकथानक वाक्योंको दूसरे देशों में ही वह जैनाचारका कोई प्रावश्यक अंग उद्धृत करके जो कुछ कहा गया है और उसमें चारित्रसमझा जाता था।
मोहनीयके उदय तककी कल्पना की गई। वह भी ऐसा श्रीमिनसेनाचार्यके विषय में दूसरे पक्ष कथनका ही कुछ अप्रासंगिक जान पड़ता है। अर्धकथानके उन उल्लेख करके जो यह कहा गया है कि- 'इस कथनके वाक्योंपरसे और चाहे कुछ फलित होता हो या न होता बारेमें क्या कहा जाय जो भगवत् जिनसेन जैसे महापुरुषकी हो पर इतना तो स्पष्ट है कि कविवर जनेउको विप्रवेषका बातको भी अपने पक्षविशेषके प्रेमवश उड़ादेनेका अद्भुत अंग समझते थे--जैनवेषका नहीं, और जिस देश (यू. तरीका अंगीकार करते हैं। वीतराग निस्पृह उदात्तचरित्र पी.) में वे रह रहे थे वहां जनेऊ विप्रसंस्कृतिका अंग महापुरुष अपनी ओरसे भागममें मिश्रण करके उसे महा- समझा जाता था--जैनसंस्कृतिका नहीं। तभी उन्होंने वीर-वाशीकी परम्परा कहें यह बात तो समझमें नहीं अपनेको बाक्षाण प्रकट करने के लिये जनेउको अपनाया था। . श्राती" इसे यदि लेखक महोदय न कहते तो ज्यादा अच्छा फिर उनकी कयनीके इस ध्रुव सत्यको यही धर उधर होता। क्योंकि इस प्रकारके अवसर पर ऐसी श्रद्धा-विषयक की बातों में कैसे उडाया जा सकता है? बातें कहना अप्रासंगिक जान पड़ता है और वह प्रायः विना मादिपुराणके वाक्योंको अलग कर देने पर लेखमें युक्तिके ही अपनी बातको मान लेनेकी भोर अपील करता केवल एक ही भागमप्रमाश विचारके लिये प्रवशिष्ट रह है। कमसे कम जिन विद्वानों ने जैनाचार्यों के शासन-भेदके जाता है भी यह है तिलोयपरणातीका वाक्य । इस वाक्य इतिहासका अध्ययन किया है वे तो ऐसा नहीं कहेंगे। में भोगभूमियोंके भाभरणोंका उल्लेख करते हुए 'ब्रह्मसूत्र' उन्हें तो इतिहासपरसे इस बातका अनुभव होना भी स्वा- नामका भी एक प्राभरणा (माभूषय)बतलामा है और वह भाविक है कि समय समय पर कितनी लौकिक-विधियों मकुट, कुयाल, हार. मेखमाथि जिन जेवक सापमें उजिको जैनाचारमें शामिल किया गया है और फिर बादको खित है उन्हींकी कोटिका कोई जेवर मालूम होता है, सूत उनके संरकणार्थ 'सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको के भागोंसे विधिपूर्वक बना हुमा यज्ञोपवीत (जनेऊ)