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अनेकान्त
[ वर्ष ६
अनुसरण किया गया है। प्रमाणनयतस्वालोक मामक अपनानेकी ही प्रेरणा करते हैं। तया स्वामीसमन्तभद्रने भी श्रेताम्बर प्रथमें भी इन सात नयोंके स्वरूपका संकलन भागमकी प्रमाणता अर्थात् सत्यताके लिये उसमें श्रोताके उक्त विगम्बर प्रन्धोंक अनुरूप ही किया गया है। परन्तु मैं अनुभव और तर्ककी अविरोधिताको कारण बताकर इसी अभी यह नहीं कह सकता हूं कि उसमें श्वेताम्बर ग्रन्थों श्राशयको पुष्ट किया है। अजैन विद्वान म० कालीदासकीकी कितनी प्राचीन परम्पराका प्राधार मौजूद है।
"पुराणांमत्येव न साधुमन चापि काव्यं नवमित्यवचम्। बहुत विचार करनेके बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ
सन्तः परध्यान्यतरमजन्ते मूहःपरप्रत्ययनेयबुद्धिः।" किइन प्रन्यों में पाया जाने वाला उक्त सात नयाँके स्वरूप
यह उin. उनकी नजरोमें द.शनिक पद्धतिके महत्वको का यह संकलन प्रायः दोषपूर्ण है। परन्तु किसी भी उत्तर प्रस्थापित कर रही है । सभी दर्शनकारोंकी भी मान्यता विद्वानकास और सच्य नहीं जानेका प्रधान कारण यह यही है कि प्रत्यक्ष सर्वप्रमाणसे बढ़कर प्रमाण है और है कि कि पूर्व पूर्वके विद्वान कालगणनाकी अपेक्षा भग
वही अनुमान प्रमाण माना जा सकता है जो प्रत्यक्ष प्रमाण बान महावीरके. जिन्हें कि सर्वज्ञ स्वीकार किया गया है, का विरोधीन हो। अनुमानके बाद मागमकी प्रमाणताका निकटतर या निकटतम ठहरते हैं। इस लिये उनकी श्रुति नंबर माता अर्थात जो भागम प्रत्यक्ष और अनुमान
और धारणाको जैन परम्परामें उत्तर उत्तरक विद्वानोंकी दोनोंका विरोधी न हो वही प्रमाण माना जा सकता है. अति और धारणाकी अपेक्षा अधिक सही और निर्दोष दूसरा नहीं। इसका मतलब यह हुश्रा कि अनुभव और माना गया है और यही सबब है कि उत्तर उत्तरके विद्वानों तर्कके द्वारा निीत बातके बारेमें 'भागममें यह बात है ने पूर्व पूर्वके विद्वानों की मान्यताचोंके संरक्षणका ही अधिक या नहीं? अथवा भागममें तो इससे विपरीत कथन मिलता ध्यान रखा है। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि है।" इत्यादि प्रश्न उठाना व्यर्थ है। यदि अनुभव भीर जैनपरम्परामें तत्वमान्यताके बारेमें दो प्रकारकी पद्धतियों तर्कसे निति कोई बात भागममें नहीं पाई जाती है से काम लिया गया है-एक प्रागमिक पद्धति और दूसरी अथवा वहाँ पर वह अमुभव और तर्कके विरुद्ध प्रतिपादित दार्शनिक पद्धति । तस्वमान्यतामें प्राचीन परम्पराको आधार की गयी है तो दोनों ही हालतों में वह गलत नहीं ठहरायी मानना भागमिक पद्धति कहलाती है और प्राचीनताको जा सकती है. प्रत्युत ऐसी हालतमें वह भागम ही दोषपूर्ण महत्व न देते हुए अपने अनुभव और तर्कके आधार पर सिद्ध होता है। प्रस्तु, प्रकृतमें अब हमें इस बात पर तत्वनिर्णय करना दार्शनिक पद्धति समझना चाहिये । इन विचार करना है कि प्राचीन विद्वानोंने सात नयोंके स्वरूप : दोनों पद्धतियोंमेंसे प्रागमिक पद्धति उन लोगोंके लिये का जो संकलन किया है वह कहो तक अनुभव और तर्क के उपयोगी है जो स्वयं अपने अनुभव और तर्कके भाचारपर विरुद्ध है कि जिसके माधार पर उसे दोषपूर्ण माना जा परीक्षा-द्वारा तत्वनिर्णय करने में असमर्थ हैं। लेकिन जो सके। इस लिये अब हम सातों नयोंके स्वरूपपर मालोलोग अपने अनुभव और तर्कक आधार पर परीक्षा करके चनात्मक पद्धतिसे विस्तृत प्रकाश डालना आवश्यक तत्वनिर्णय कर सकते हैं उनके लिये प्रागमिक पद्धतिका समझते हैं।
(क्रमश:) कुछ भी महत्व नहीं रह जाता है, ऐसे लोगों के लियं
२ प्राप्तोपशमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् ॥र० श्रा० श्लो दार्शनिक पद्धति ही श्रेयस्कर बतलायी गयी है। इस लिये
स्वामी समन्तभद्रने इस श्लोक के द्वारा शास्त्रका लक्षण प्रागमिक पद्धतिकी अपेक्षा दार्शनिक पद्धतिको अपने पाप
बतलाते हुए उसमें दृष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष और ए अर्थात् महत्वपूर्ण स्थान मिल जाता है और यही सबब है कि
अनुमान की अविरोधिताको आवश्यक बतलाया है। शेताम्बर विद्वान् हरिभद्रसूरिवचन अर्थात् मागमकी माझताके
बताक ३ न हि दृष्टाज्येष्ठ गरिष्ठमिष्टं, तदभावे प्रमाणान्तगप्रवृत्ते: लिये उसमें युक्तिमत्ताका समर्थन करके दार्शनिक पद्धतिको
' समागेपव्यवच्छेदविशेषाच xxx १-पक्षपातो न मे वारे न देषः कपिलादिषु ।
४ 'श्रष्ठेष्टविरोधकम् । "शास्त्र' रत्नक.पा. युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ हरिभद्रसूरिः