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किरण ]
नयाँका विश्लेपगा
के आधारपर ये चारों ही अर्थनय यथायोग्य पूर्वोक्त तीनों शब्दनयों की कोटि में पहुँच जाते हैं अर्थात अनयों में जब व्याकरण सम्मन वाक्यप्रयोग किया गया हो तब उन्हें शब्दनय, जब कोष सम्मत शब्दप्रयोग किया गय हो तब समभिरूदन और जब निरुक्ति या परिभाषाके आधार पर शब्दप्रयोग किया गया हो तब एवंभूतनय समझना चाहिये।
इस कथनसे यह भी निष्कर्ष निकल आता है कि जब पूर्वोक्त सैद्धान्तिक आध्यात्मिक और लोकसंग्राहक नयोंकी प्रथं प्रतिपादनकी अपेक्षा अधंनय और व्याकरणादिद- सम्मत चचनप्रयोगकी अपेक्षा शब्दनय मान लिया गया है तो सैद्धान्तिक नयके द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, आध्यात्मिक नयके निश्चय और व्यवहार तथा लोकसंग्राहकनय के पूर्वोक्तप्रकारसे वचनोंके विकल्प प्रमाण जो भेद पहिले बतलाये गये हैं उन सभी भेदोंको अर्थनयत्वको दृष्टिसे नैगम आदि चार और शब्दनयत्वको दृष्टिसे शब्द आदि नीन भेदरूप समझना चाहिये। इस लिये जैन ग्रन्थोंमं जहां कहीं नैगम आदि सात नयोको सिर्फ सैद्धान्तिक नयके भेद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनयों में संघटित करनेका प्रयत्न किया गया है' वह ठीक नहीं है। साथ ही द्रव्यार्थिक नयको सिर्फ नैगम, संग्रह और व्यवहाररूप तथा पर्यायार्थिकनको सिर्फ ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूद और एवंभूत-रूर बताना भी भ्रमपूर्ण है। कारण कि पूर्वोक्त प्रकार से द्रव्यार्थिक नयके समान पर्यायार्थिक नय भी नैगम संग्रह तथा व्यवहारनय सिद्ध होता है और पर्यायार्थिक नय के समान द्रव्यार्थिकनय भी ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद तथा एवंभूतरूप सिद्ध होता है। स्वामी विद्यानन्द आदि किन्हीं २ आचार्योंने नैगमनयके तीनभेद स्वीकार किये हैं इयनैगमनय पर्याय नैगमन और इम्यपर्याय इसमें स्पष्ट मालूम होता है कि स्वामी विद्यानन्दी आदि आचार्योंके लिये ऋजुसूत्रादि चार नयोंके अतिरिक्त नैगम१] विशेषेण २८ २६८
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२- द्रव्यार्थी व्यवहारान्तः पर्यायार्थस्ततो परः ॥ ३- यद्वा नैकं गमी योत्र स सतां नैगमो मतः ।
धर्मयार्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणः ॥ २१॥ स. २६६ धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्रव क्षणं स नैकंगमो नैगमः ॥ प्रमाणयनतत्वालांक ७-७
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नयको भी पर्यायार्थिक नय मानना अभीष्ट है और यह जैन ग्रन्थोंके उल्लिखित कथनको भ्रमपूर्ण माननेमें जबर्दस्त प्रमाण है । इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे किया जायगा । यहां पर एक बात और ध्यान में रखने लायक है कि जब शब्द, समभिरूद और एवंभूत इन तीनों नयों को शब्दनय स्वीकार किया गया है तो शब्दनयत्यकी से इन्हें पर्यायार्थिकनय मानना की असंगत ही है कारण कि द्रव्य और पर्याय तथा निश्चय और व्यवहार आदि सभी अपने अपने रूप में एक प्रकारके अर्थ ही तो हैं. इस लिये इनका प्रतिपादन करने वाला कोई भी नय अर्थनय ही माना जायगा, शब्दनय नहीं । और यह बात बतलायी जा चुकी है कि अर्थनयके भेद नैगम, संग्रह, व्यवहार तथा ऋजुसूत्र ये चार ही माने गये हैं। इस प्रकार द्रव्य अथवा पर्याय तथा निश्चय अथवा व्यवहार आदि विषयका प्रतिपादन करने की दृष्टिसे शब्द, समभिरूद और एवंभूत इन तीनों नयाँका अंतर्भाव हमें यथायोग्य नैगम, संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र इन चारों नयोंमें ही करना होगा ।
जैनधर्म में व्यवहारनयके भी सद्भूत व्यवहारनय, भ्रमद्भूत व्यवहारमय और उपचरितासद्भूत व्यवहारनय आदि भेद किये गये है परन्तु साथमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि सद्भूत असद्भूत और उपचरितासभूत आदि भेद प्राध्यामिकनयके भेद व्यवहारनयके ही होते हैं. अर्थनयके भेद व्यवहारनयके नहीं । श्राध्यात्मिकनयके भेद व्यवहारनय में इन भेत्रोंकी संभावनाका प्राभास पूर्व में किये ये आध्यात्मिकतय के विवेचनमें मिल जाता है बाकी अर्थनयके भेद व्यवहारनयमें इन भेद्रोंकी संभावनाका स्पष्टीकरण इस व्यवहारनयका विवेचन करते समय किया जायगा ।
इन सातों नयोंके स्वरूपके बारेमें श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें जो मान्यतायें पायी जाती हैं वे करीब करीब समान ही हैं । श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें खोज करनेका तो मुझे अवसर नहीं मिल सका है फिर भी दिगम्बर ग्रन्थोंके देखनेसे पता चलता है कि यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो उपलब्ध ग्रन्थोंमें से पूज्यपाद प्राचार्यकृत सर्वार्थसिद्धि प्रन्यमें ही सबसे पहिले इन सात नयोंके स्वरूपका संकलन किया गया है और तत्वार्यराजवार्तिक, तस्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमेषकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोंमें उक सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थका ही प्रायः