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किरण ]
सम्पादकीय-विचारणा
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नहीं-भले ही ब्रह्मसूत्र यज्ञोपवीतको भी कहते हों, क्यों उनके शरीरपर जिनसेनके शब्दों में यज्ञोपवीत था" और कि भोगभूमियों में उपनवन अथवा यज्ञोपवीत संस्कार नहीं इसके द्वारा यह बतलाना चाहा है कि प्रतावरण-कियाके होता है। मोंगभूमियोंमें तो कोई मत भी नहीं होता और अवसर पर भरतने यज्ञोपवीत नहीं उतारा. वह कुछ संगत, यज्ञोपवीतको स्वयं जिनसेनाचार्यने तचिन्ह बतयाया है, मालुम नहीं होता। क्यों किस कथनसे पहले यह सिद्ध जैसा कि मादिपुराण (पर्व ३८.३.) निम्नवाक्योंसे होना भावश्यक है कि दिग्विजयको निकलनेसे पहले भरतका प्रकट है
यज्ञोपवीत संस्कार हुमा था, जो सिद्ध नहीं है। जब यशो. "मतचिन्हं दधत्मत्रं .............. ............" पवीत संस्कार ही नहींहब भरतके प्रतावरणाकी बात ही कैसे "व्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतीस्मि साम्प्रतम् ।" बन सकता है। जिनसेनने तो उक्त अवसर पर भी भरतके "वतचिन्हं भवेवस्थ सूत्र मंत्रपुरःसरम् ।" शरीर पर (प. २५-६६) दूसरे स्थानकी तरह उसीमाऐसी हालत में "केयूर महासूत्रं च तेषां शश्वविभूषणम्" सूत्र नामके भाभषयका उल्लेख किया है। (३-२०)स वाक्यके द्वारा जिनसेनापयंने भोगभूमियों इसके सिवाय, लेखकने व्रतावरण क्रियामें सार्वकालिक के आभूषणों में जिस ब्रह्मसूत्रका उल्लेख किया है वह बत- प्रत-नियमोंके अक्षुण्ण रहनेकी जो बात कही है वह तो चिन्ह वाला तथा मंत्रपुरस्सर दिया-लिया हुमा यज्ञोपवीत ठीक, परन्तु उन प्रतनियोंमें यज्ञोपवीतकी गयाना नहीं नहीं हो सकता। वह तो भूषणा जातिके कल्पवों द्वारा है--उनमें मधुमासादिके त्यागरूप केही त परिगृहीत है दिया हुमा एक प्रकारका भाभूषण है-जेवर है।
जो गृहस्थश्रावकोंके (भष्ट) मूखगुण कहलाते हैं. जैसा कि भगवान ऋषभदेव और भरतेश्वरके आभूषणोंका वर्णन जिनसेनके ही निम्मवाक्यों से प्रकट है:करने वाले श्रीजिनसेनके जिन वाक्योंको लेखमें उरत "यावद्विचासमाप्तिः स्यात्तावदस्येशं व्रतम् । किया गया है उनमें भी जिस मसूत्रका उल्लेख है वह ततोऽप्यूचं व्रतं तस्याचन्मूलं गृहमेधिनाम्" ॥ १८ ॥ भी उसी प्राकार-प्रकारका जबर है जिसे भोगभूमिया लोग "मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बर - वर्जनम् । । पहनते थे। श्रीकृषभदेवके पिता और भरतेश्वरके पितामह हिंसाविषिरहिवास्य व्रतं स्यात्सार्वकालिकम्"। १२३॥ नाभिराप भोगभमिया ही थे-कर्मभूमिका प्रारम्भ यहाँ ऐसी हालतमें लेखक महोदयने उन सार्वकालिक व्रतों वृषभदेवमे हुमा। भवृषभदेव और भरतचक्रीके यज्ञो- में यज्ञोपवीतकी कैसे और किस आधारपर गणना करती पवीत संस्कारका तो कोई वर्णन भगवजिनसेनके आदि- वह कुछ समझ में नहीं पाता!! दूसरोंकी मान्यताको प्रमपुराणमें भी नहींी।भाविपुराण कथनानुसार भरतश्चक्रवर्ती पूर्ण बतखाने में तो कोई प्रबल माधार होना चाहिये. ऐसे ने दिग्विजयादिके अनन्तर जब वृषभदेवकी वर्शभ्यवस्थासे कल्पित भाचारोंसे तो काम नहीं चल सकता। भित्र प्रामण पर्वकी नई स्थापना की तबसे प्रतचिन्हके इस तरह जिनसेनके जिन वाक्योंको लेखमें भागमरूपमें यज्ञोपवीतकी सृष्टि हां। ऐसी हालत बतावतरण- प्रमाणरूपसे उदृत किया गया वे विचारकी हसरी रति विषयक मान्यताको भ्रमपूर्ण बतलाते हुए विद्वान लेखकने से भी प्रयास है. और इस लिये उनसे लेखककी हर-सिदि जो यह लिखा है कि "भरतमहाराजमे गृहस्थका पद स्वी- प्रयवा उनके प्रतिपाच विषयका समर्थन नहीं होता। कार करके जब दिग्विजयके लिये प्रस्थान किया था तब भी त्रिलोकप्रज्ञप्तिका प्रमाण भी प्रकृत विषयके समर्थन में
असमर्थ है। उन्हें तो इसके लिये ऐसे प्रमाणोंको उपस्थित *इसीसे भ० वृषभदेवके श्राभूषणोका वर्णन करते हुए यह करना चाहिये था जिनका यज्ञोपवीत संस्कारके साथ सीधाभी लिखा है कि उन श्राभूषणोंसे वे भूषणाक कलावृक्षके स्पष्ट सम्बन्ध हो और जो भावजिनसेनसे पूर्व साहित्यमें समान शोभते थे
पाये जाते हो। इति प्रत्यङ्गसकिन्या बभौ भूषणसम्पदा ।
विपक्षकी भोरसे यह कहा जाता है कि उक्त जिनसेन भगवानादिमो ब्रह्मा भूपणाजवाधिपः ॥१६-२३८ से पहले बने हुए 'पचपुराणमें श्रीरविषेणाचार्यने गावाबों