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किरण ]
गोत्रविचार
नाचगामवृत्ति, शिल्पपत्ति और सेवावृत्ति प्राधारसे बाँकी अलग अलग व्यवस्था नहीं की। अब रह गई गुणानिर्मित हुई, जिसब कहते हैं ये मार्य होते हुए भी स्थानों की बात सो जब तक म्लेच्छ मनुष्य भार्य हो सकता नीचगोत्री होते हैं।
हो उसे मायके संसर्गसे सम्बरि भादि गुणस्थानों इस उपर्युक्त कथनका यह सारांश है कि शूद्र भार्य प्रास करने में कौनसी बाधा मासकसीत कोई नहीं। और म्लेच्छ ये नीचगोत्री होते हैं और शेष भार्य उचगांत्री दूसरे प्रश्नका निर्णय करना थोका कठिन है। उसमें होते हैं।
किसी भी प्रकारके नर्कको भाश्रय देना हर नहीं । सम्भव __ यहाँ दो महत्व प्रश्न उपस्थित होते हैं। जो निम्न अनुसन्धानसे कभी इसपर अधिक प्रकाश गक्षा जा सके। प्रकार है--
(४) एक भषमें गोत्रपरिवर्तन होता है। (1) जब सभी म्लेच्छोंके नीचगोत्रका उदय रहता है तो पर्यास मनुष्यके सामान्यसे जो १.२ प्रकृतियो उदय
गोत्रपरिषर्तनके विषयमें हम कुछ युक्तियों इसके योग्य पतलाई है उनमेंसे एक उच्चगोत्र कम होकर इनके
पहले पालम प्रमाण उपस्थित कर देना चाहते हैं। एकसी एक प्रकृतियाँ ही उदययोग्य होगी। और यदि यह
प्रमाण धवला उदीरणा-अनुबोगद्वारके है। ठीक है तो इनकी उदयादि व्यवस्थाका कथन अक्षगसे क्यों
'अजसकित्तिदुम्भगमणादेजणीचागोदारणं उक्कनहीं किया। इसी प्रकार इनके एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही
स्सपदेसउदीग्त्री को होदि ? सबबिसुद्धो असंजद
सम्माइट्ठी से काले संजमं पडिबिहिदि त्ति'। कहना था? (२) उदयादिका कथन करते समय कुभोगभूमियों के
अयशाकीर्ति, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रकी मनुष्योंका किनमें अन्तर्भाव किया है। भोगभूमिके मनुष्यों
जस्कृष्ट प्रदेश उदीरा किसके होती? बोतदनन्तर में या पर्याप्त मनुष्यों में कहीं भी अन्तर्भाव करनेपर बाधा
समयमें संयमको प्राप्त होगा ऐसे सर्ववियुव असंयतसम्य पातीहै? यदि भोगभूमिके मनुष्यों में अन्तर्भाव किया
गरष्टिक होती है। जाता है तो उनके उच्चगोत्रके उदपकी प्राप्ति होती है और
___ पाठक कर्मकाण्डके उदय-प्रकरणको देखकर जाम यदि पर्यास मनुष्यों में अन्तर्भाव किया जाता है तो भी
सकते हैं कि इन चार प्रकृतियों में से प्रारम्भकी तीन प्रकृतियों जिस प्रकार म्लेच्छोंके निमित्तसे दोष दे पाये हैउसीप्रकार
की चौथे गुणस्थानके अन्तमें और नीचगोत्रकी पाँच गुणयहां भी दोष उत्पन होते हैं?
स्थानके अन्त में उदय या उदीरणा म्युच्छित्ति होती है। अब ये दोनों प्रश्न महत्व है यह बात स्वीकार कर लेने में
को संयल्सम्यगाष्टिीच, जिसके चार प्रकृरियोंका हमें कोई भापति नहीं प्रतीत होती है। पर पहले प्रश्नका
उदय हो रहा है. सकल संयमको स्वीकार करे तो उसके इनके समाधान हो सकता है जो निम्न प्रकार है--
म्यानमें यश:कीर्ति, सुभग, प्रादेय और उचगोत्रका उदय बात यह है कि मनुष्यों के प्रार्य और म्लेच्छ भेद
हो जायगा ! इससे स्पष्ट हो जाता है कि एक भवमें गोत्रसामाजिक परम्पपासे सम्बन्ध रखते हैं। कुत्ता और विही में
बम्ध रखते हैं। कुत्ता और विकीमें परिवर्तन होता है। जिस प्रकार तिर्यक होते हुए भी जातिगत भेद है उस 'गीचागोदस्स जहा एगममयो उपचागोदादो प्रकार भार्य और म्लेच्छ मनुष्यों में नहीं । त्रिकालमें भी णीचागोदं गंतूणबत्थ एगसमयच्छिय बिदियसमय कुत्ता विही नहीं हो सकता और विही कुत्ता नहीं । पर उच्चागोदे उदयमागदेण्गममनो लम्भदे । उनका असंमनुष्योंकी ऐसी बात नहीं है । जो भाज म्लेड है वह खेज्जा पोग्गलपरियट्टा। उचागोदस्म जह० एगसमझो। अपने संस्कार्ग और परम्पराको बोरकर कालान्तरमें उत्तर-मरीरं विग्विय एगममाण मुदस्स तदुवलम्मामार्य हो सकता है। जो भार्य है वह उसी प्रकार म्लेच्छ दो। एवंणीचागोदरम वि उक्क सागरोवमसदपुधत्तं'। हो सकता है। यही सब है कि करणानुयोगमें मनुष्यों में नीचगोत्रकी उदीरणाका जघन्यकाल एक समय है। प्रकृतियोंका उदय बतलाते हुए इनमें उदय-योग्य प्रकृति कोई जीव उचगोत्रमे नीचगोत्रमें गया और वहां एक