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किरण
गोत्र-विचार
उच्चुरुच उकच तह उकापणीचणीचुकच गीचणीचं च। हो सकता है. इसमें कोई बाधा नहीं है। केवल इतनी जस्पादयेण भावा णोचुच्च विरग्निश्री तस्म। विशेषता है क संबमको प्राप्त होनेवालेके नीचगोत्रका
यह उद्धरण भरला टीका खुद्दाबन्धका है। इसका उदय नहीं रहता उसके नियमसे उच्चगोत्रका उदय हो जाता यह भावहै कि जिपके उश्यये उचउ च. उचनीच, है। तथा किसी मनुष्य देशसंयमके होनेपर भी नीचगोत्र नीच रच, नीच और नोचनीच भाव होता है उस गोत्र- न रह कर उच्चगोत्र हो जाता है। इससे विदित होता है कर्मक प्रभाव होने पर मिल जीव नीच और उच्च भावसे कि एक भवमें गोत्रपरिवर्तन होता है। रहित होते हैं।
(३) यतिवृषभ भाचार्यने अपने चूर्णिसूत्रोंमें अकर्मभूमिया (२) धवलाके उदय और उदारणा अनुयोगद्वारमें
मनुष्यके सकल संयमका निर्देश किया है। प्रकर्मभूमियां लिखा है कि नीचगोत्र केवल भवप्रत्यय है और उच्चमोत्र मनुष्य पांच साल म्लेच्छोंको छोड़कर और कोई नहीं। गुणस्थान प्रतिपच जीवों में परिणामप्रत्यय और भवप्रत्यय
पर इनके वीरसेन स्वामी द्वारा की गई उपचगोत्रकी म्या धोनों प्रकारका और गुणप्रतिपक्ष जीवमि केवल भव- सपा अनसार नीचगोत्र होता है। और यह अपर पतला मस्पयो। यहाँ परिणामोंसे देशसंयम और सकलसंयमका
पाये है कि सकल संयमीके नीचगोत्र नहीं होता। इससे ग्रहण किया है। इसमें साता और असाताको भवप्रत्यय
भीयही निष्कर्ष निकलता है कि एक भवमें गोत्र बदलता है। बतलाया है। यथा
इस प्रकार हमने गोत्रविचार शीर्षक चार अवान्तर ___xxxणीचागोदागामुदीरणा एयंतभवपच्चइया। विभागों द्वारा गोत्रका विचार किया है। इसमें हमने अभी xxx उचागोदाणमुदीरगा गुगपरिवरणसु परिगणा- चरणानुयोग और करणानुयोगके पायंग्य दिखानेका चल मपकचइया । अगुणपडिवएणेस भव.कचाइया । को पुण नहीं किया है। पचपि उसके बिना यह खेल अभी अधूरा गुणो मंजमो संजमासंजमो बा ।
ही है। पर हम सोचते है कि इस पर अनुकूल और प्रतिकूल भाशय यह है कि जिस प्रकार अहो साता और असाता विचार होजाने के बाद जो प्रमेय निष्पन्न हो उनके माधारसे दोनोंका उदय सम्भव है वहाँ सातासे असाताके होने में और इस विषयका एक व्यवस्थित निबन्ध तैयार किया जाय जो भसातासे असाताके होने में वह भव ही मुख्य कारण है। सर्वबाके लिये उपयोगी होगा। इस लिये हम इतना ही उसी प्रकार नीचगोत्र और उच्च गोत्रके उदय और उदीरणा लिखकर वर्तमान में इस लेख को समाप्त कर रहे हैं। केविषयमें जानना। यह हम पर ही बतखा भाये कि भाशा है दूसरे विद्वान् तस्वमीमांसाकी ष्टिसे सप्रमाण कर्मभूमि मनुष्य ही ऐसे हैं जहाँ एक पर्याय में दोनों का उदय अपने विचार व्यक्त करनेकी का करेंगे।
__ कला-प्रदर्शनीकी उपयोगिता
[भारतीय मित्रपरिषद्के प्रथमाधिवेशनमें 'कक्षा-प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए श्रीनगरचन्दजी नाहटाबीकानेरका भाषण]
सबसे पहिले मैं अपने सम्बन्धमें यह स्पष्टीकरण कलाका उद्गमकर देना उचित समझता हूँ कि मैं न तो कोई कला- कलाका विवेचन करने के पूर्व मवसे पहिले हमें विद् विद्वान और न वक्ता ही हूँ। अतः कलाके विषय कलाके उद्गमके सम्बन्धमें विचार करना भावश्यक में मेरी जानकारी सीमित है इम लिए इस सम्बन्धमें क्योंकि जहां तक हम किसी भी वस्तुको उत्पत्ति किस आप लोगोंको मेरेसे कोई नई बात प्राप्त करनेकी परिस्थितिमें किनके द्वारा और किन साधनोंसे हुई श्राशा नहीं रखनी चाहिये कलाविशारदों व विषेशज्ञों यह न जानलें तब तक हम उसके सम्बन्धमें अन्य के लिए मेरा अनधिकार वक्तव्य सतव्य है। पाप विचार करने में अपूर्ण रहेंगे। न-परम्पराके अनुसार लोगोंने स्नेहवश प्रस्तुत कला-प्रदर्शनीके उद्घाटनका कलाका सर्वप्रथम उद्गम इस अवसर्पिणीकालमें प्रथम भार मुझे सौंपा है इस लिए अपने एतद् विषयक तीर्थंकर श्रीऋषभदेव भगवानसे हुमा। उनके पूर्व विचारोंको संक्षेपसे प्रकट करता हूँ
यहां युगलिक लोग रहते थे जोकि अपना निर्वाह