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अनकान्त
[ वर्ष ३
प्रकृति या देवप्रदत्त वस्तुभोंसे करते थे । जैनागमों में कला और दूसरी ललित कला । इनसे जीवन-यापन कहा है कि उनके मनोरथ कल्पवृक्षों के द्वारा पूर्ण होते में आवश्यक विविध काकी उपयोगी कला और ये। कालप्रभावसे कल्पवृक्ष कृपण हो गए और युग- सौन्दर्य प्रधान कलाको ललित कला कहा जाता है। लियोंकी आकांक्षाएँ बढ़ने लगी उस समय भगवान ललित कलामें प्रधानतया साहित्य, काव्य. संगीत, ऋषभदेव अवतरित हुए और उन्होंने आवश्यक नृत्य, चित्र, मूर्ति बास्तु आदिका आकर्षक और सुचारु ममझ कर पुरुषों की ७२ कलाएँ और खियोंकी ६४ निर्माण माना जाता है । कलाके कुछ प्रकागेको शिल्प कलाएँ लोगोंको बतलाई।
एवं कारीगरीके नामसे भी कहा जाता है समवायाज कलाकी व्यापकता
सूत्रके ७२ वें समवायमें व राजप्रश्नीयोपाङ्गक दृढ
प्रतिज्ञकी शिक्षाके प्रकरणमें पुरुषकी ७२ कलाओं एवं इन ७२ एवं ३४ कलाके भेदोंपर ध्यान देनसे
जम्यूद्वीप प्रज्ञप्तिकी टीकामें स्त्रियोंकी ६४ कलाओंकी हमें कलाके तत्कालीन व्यापक अर्थ-भावका बोध
नामावली पाई जाती है। इसी प्रकार जैनंतर कामसूत्र होता है। आजकल हम कला, शिल्प, साहित्य एवं संस्कृतिरूप भिन्न-भिन्न नामोंका भिन्न-भिन्न अर्थ में
के विद्या ममुद्देश प्रकरणमें ६४ कलाओंकी तालिका प्रयोग करते हैं किन्तु तब ये बातें कलाक हीअन्तर्गत
उपलब्ध है। ये कलाके विशेष प्रकार हैं। मानी जाती थी, क्योंकि ७२ एवं ६४ कलाओं में वेद, कलाकी उपयोगितास्मृति, पुराण, इतिहास, तके, ज्यातिष, छंद, अलङ्कार कला जब कि मानवी सृष्टिका ही उपनाम है इम व्याकरण, काव्यादि साहित्यका नाम आता है। इसी का उपयोग जीवनके पल पलमें होता है, क्योंकि प्रकार रंधन, खांडन, शिल्प एवं नित्योपयोगी कार्यों मनुष्य प्रतिसमय कुछ न कुछ सृष्टि करता ही रहता को कलामें माना गया है। विश्व में जितनी भी वस्तुएं है चाहे वह बोलनके रुपमें हो, लिरूने के रूप में हो, एवं कार्य हैं वे दो प्रकारक हैं एक प्रकृतिजन्य और रांधन या किसी वस्तुके निर्माण रूपमें हो। इसी लिए दूसरे मनुष्यादि प्राणीके सर्जित। इनमें से कलाका कलाके बिना जीवन-यापन दुष्वार है । अतः कला व्यापक अर्थ है मनुष्यकी कृति, जिसमें सत्यं, शिवं, की उपयोगिताके विषय में विशेष कुछ कहने की सुन्दरम् तीनोंका समावेश होता है, पर वर्तमानमें आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। साधारणतया इनमें से सुन्दरको ही कलाका वाचक कलाके उत्कर्षमें जैनोंकास्थानएवं द्योतक समझा जाता है। व्यापक अर्थमें विश्वमें
जैनसमाज सदासे ही कलाका प्रेमी और उसके जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला
उत्कर्षमें प्रगतिशील रहा है। उनके ग्रंथ-लेखनकी भी है, फिर चाहे वह साहित्य हो, शिल्प हो या ललित
एक कला है जो दूसरोंसे अपनी खास विशेषता रखती कला हो। इसी लिए महात्मा गाँधी आदि मनाषियों
है। अक्षरोंकी सुन्दरता, त्रिपाठ, पंच पाठ, स्वर्णने कहा है कि कला विहीन जावन पशुके समान है।
रौप्यायाक्षरी, लिखते हुए स्थान रिक्त छोड़ कर स्व'गाँधीजीका कथन है कि कर्म में कुशलताका नाम कला
स्तिक, वृक्ष, नाम आदि विविधरूपमें कलाप्रदर्शन है "कला कर्मसु कौशल्यं" गीतामें कर्ममें कौशलको
जैनलिखित प्रतियोंकी खास विशेषता है। इसी प्रकार योग कहा है, यही सम्पूर्ण कला है। सच्ची कला सदा
चित्रकलाके संरक्षण और अभिवर्द्धनमें जैन समाजका सरस होती है, इसके बिना जीवन निस्सार एवं नीरस है।
बहुत बड़ा हाथ है। जैन चित्रकलाको छोरनेसे भारत
के चित्र कलाका इतिहास तैयार हो ही नहीं सकता। कलाके प्रकार
कुछ भित्तिचित्रोंको छोड़ कर कपड़े, साड़पत्र एवं काष्ट कलाके भेद मुख्यतः दो माने जाते हैं एक उपयोगी पर भालेखित प्राचीन चित्र जैनसमाजको छोड़कर